विनय राग बिलावल | Vinaye Rag Bilaval

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Vinaye Rag Bilaval by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ञ दिनय-पत्ििका _ सोहत ससि धवलू धार सुधा-सलिल-मरित 1 पिमलतर तरंग लसत रघुबर केसे चरित॥रशा तो बिन्चु जगदंवब गंग कलिजुग का करित १ घोर भव-अपारसिंधु तुलसी किमि तरिताशा भावार्थ-दे गंगाज्ञी | स्मरण करते ही तुम पापों और देद्दिक+ दैविक, भौतिक-इन तीनों तापोंकों हर लेती हो ) आनन्द और मनोकामताओंके फर्लेसे फली हुई करपलताके सटदा तुम पृथ्वीपर शोभित हो रही हो ॥१॥ असृतके समान मधुर एथं सत्युसे छुट्रानेवाले जलसे भरी हुई तुम्द्वारी चन्द्रमाके सदश घवर घारा शोमा पा रही दै | उसमें निर्मेल रामचरित्रके समान अत्यन्त निर्मल तरह उठ रही हैं ॥२॥ हे जगऊननी गंगाजी ! तुम न होती तो पता नही कलियुग फ्या-फ्या अनर्थ करता और यद्द तुलसीदास घोर अपार संसार -सागरसे कैसे तरता! ॥३॥ [२०] ईस-सीस यससि, जिपय लससि, नभ-पताल-घरनि | सुरःनर-सुनि-नाग-सिद्-सुजन॒. संगरू-करनि॥१॥ देखत दुख-दोप-दुरित-दाइ-दारिद-दरनि । संगर-सुबन-सांसति-समनि, जलनिधि जल भरनि॥र॥ मदिमादी अदधि करसे बहु विधि-हरि-हरानि। छुठसी झरू बर्णन बिसल, बिमरू बारि यरनि॥रे॥ भाशार्4-द्वे गंगाजी ! तुम शिवजीके सिरपर विराजती दो; भाकाश,+




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