न्याय - दर्शन | Nyay - Darshan

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Nyay - Darshan by दर्शनानन्दजी सरस्वती - Darshanaand Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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$ ओरेम $ न भा[मका ससार में प्रत्येक मनुष्य को सुख-दुःख का अनुभव होता रहता ओर सब इसी के लिए प्रयत्न करते हैं कि वे दुःख को छोड़कर दुख प्राप्त करेगे | परन्तु सुख-प्राप्ति की इच्छा ओर दुःख से घृणा होने रभीनतो प्रत्येक को सुख मिला है ओर न ही दुःख से मक्ति मैलती है। इस अद्भुत दशा को देखकर अर्थात्‌ सुख के प्राप्त करने ओर दुःख से बचने का उद्योग करते हुए भी यह असफलता क्‍यों हुई ?” जब इसके कारणों पर विचार किया ज्ञाता है तो पता लगता है कि मनुष्य की सारी शक्ति परिमित है, अतः उसका ज्ञान भी परि- प्रेत है। जिस वस्तु का मनुष्य से सम्बन्ध होता है वह इन्द्रियों या मन ६ ' होता है ओर बहुत-सी वस्तु ऐसी हैं जो इन साधनों से ज्ञात नहीं हाक्षीं | उनके ज्ञात होने का साधन बुद्धि है। यदि इन तीनों साधनों (मन, बुद्धि, इन्द्रिय ) में से किसी एक में विकार या अन्तर आजावे तो ज्ञान में भी अवश्य विकार या अन्तर आजावेगा । तब ज्वान में बेकार हुआ तो उसका उपयोग ठोक नहीं होगा। उपयोग के ठीक न नेने से उसका परिणास या फल भी अवश्य उल्टा होगा | इससे यह भेद्ध हुआ कि प्रत्येक काय के फल को यथाथ रूप से प्राप्त करने के , 1ए ज्ञान का यथाथ होना आवश्यक हे । जहाँ किसी वस्तु का ज्ञान विपरीत होगा वहाँ उसका फल्ल भी विपरीत होगा । अतः मनुष्य का परम कतंव्य है कि वह प्रत्येक वस्तु छो उपयोग में लाने से पूर्व उसका यथाथ ज्ञान प्राप्त करने के साधनों क प्राप्त करे । क्योंकि जिस सर्राफ ने सोने की परीक्षा के लिए कसौटी 97 ली है वह सोने की यथार्थ परीक्षा करने में असमर्थ है। ऐसा सर्राफ अपने व्यापार में लाभ नहीं उठा सफता और न वह सराफ




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