गीता का समत्व योग | Gita ka Samtv Yog

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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- शाइवत समाज-विज्ञान प्र्पर पूरी होने से, उसके अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति का जीवन-निर्वाह भी पूर्ण सफलता और सुख शान्तिपूर्वक सहज ही होता रहेगा, साथ ही कर्मों का कोई बन्धन भी नहीं होगा । सृष्टि की रचना ही, एक-दूसरे की आवश्यकताएँ पूरी करने में सह- योग देते रहने के इसी 'यज्ञ चक्र' पर निर्भर है। जो इस यज्ञ चक्र में भाग नहीं लेता, अपने को दूसरों से श्रलण समभकर केवल अपने व्यक्तिगत कल्याण, व्यकविति- गत स्वार्थ और व्यक्तिगत ऐश-प्राराम में ही लगा रहता है, अथवा श्रालस्य श्ौर प्रमाद में निकम्मा बैठा रहता है, वह दूसरों के हक छीनने की चोरी करता है; उसका जीना समाज पर व्यर्थ बोक होता है। जिनको आत्मज्ञान होता है, वे सबके साथ भ्रपती एकता का अनुभव करते हैं। इसलिए उनके अलग व्यविंतत्व के लिए कुछ भी करने या न करने की कोई झावश्यकता नहीं रहती, क्योंकि उनका अ्रपना कोई स्वार्थ नहीं होता; परन्तु वे सबके हित के लिए, व्यक्तित्व की आसवित छोड़कर, समाज की सुव्यवस्था रूप लोकसंग्रह के लिए कर्म करते रहते हैं। भगवान्‌ श्रजु न को उसी तरह के जनकादि ग्रात्मज्ञानी पुरुषों का तथा स्वयं अपना उदाहरण देकर कहते हैं, कि तू भी अपने व्यक्तित्व के भाव की आसकिति छोड़कर, श्रपनी योग्यता के कर्तव्य कर्म लोकसंग्रह के लिए करता रह । क्योंकि जनसाधारण बड़े आदमियों के आचरणों का ही अ्रनुकरण करता है। इसलिए, व्यक्तित्व का अहंकार रखनेवाले अज्ञानी लोगों को बुद्धि में भेद उत्पन्न करके, उनसे कर्म करना नहीं छुड़ाना चाहिए। तूं भी स्वयं दूसरों से भिन्‍न, अपने कर्तापन के अहंकार तथा कर्मफल की श्राशा झ्ौर ममता की झ्रासक्ति तथा चिन्ता से रहित होकर सबके साथ सहयोग देते हुए, अच्छा तरह कर्म करता हुआ, जन साधारण को श्रादर्श दिखाकर, संसार चक्र चलाने के लिए उनको कर्म करने में लगाये रख । प्रकृते: क्रिपमाणानि गुण: कर्माणि स्वशः । अहंकार विसूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ २७ ॥। प्रकृते,, क्रियमाणानि, गुण, कर्माणि, स्वेशः:, श्रह्ंकार, विमृढात्मा, कर्ता, अहम्‌, इति, मन्‍्यते ॥| २७ 11 (सर्वंशः ) सारे (कर्माणि) कर्म, (प्रकृते:) समष्टि संकल्प रूप क्रियाशील प्रकृति के (गृण:) गुणों द्वारा (क्रियमाणानि) किये हुए होते हैं, श्र्थात्‌ समष्टि शक्तियों के योग से होते हैं; पर (श्रहंकार) अपने अलग व्यक्तित्व के श्रहंकार से (विम ढात्मा) मोहित हुआ श्रज्ञानी पुरुष (इति) ऐसा (भन्यते) मानता है कि (भ्रहम ) में अकेला ही कर्म का (कर्ता) करता हूँ ।




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