वर्णी - वाणी भाग - 3 | Varni - Vani Bhag - 3
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
450
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)है] आत्म चिन्तन
जाती, कपल रूढिके दास वन रहे हैं ओर यही सस्कार हैं जी
अनादिसे आत्मामे लग रहे हें ।
(१1१81४८)
१६ हम मोही जीर निर वर परपदा्थोका गुण दोप विदेचना
करते हैं, अपनेसे नहीं जानते, केयल बागू व्ययद्वार माउसे सतुष्ट
हा जाते हें ।
(२३1१। ४८ )
१७ अनतानत तीपइर दो गये वे भी मसारका उद्धार
नहीं कर गय तय हम शक्तिहीन अल्पज्ञ क्या कर सक्ते हें ?
(१९। २१४८ 2)
“< मलुष्योंम बह शक्ति है कि द्रव्यादि साममीऊे द्वारा
सत्र परिम्रहके त्यागी हो सफ्ते दें पराठु मोहके द्वारा में दतमा
अशक्त हो रहा हूँ कि गृदवास छोडकर भी स्पात्मकल्याणफ्रे मार्ग-
से दर ह ! यद्यपि मुझे नढ श्रद्धा है कि मैं चेतन द्रव्य हूं और
साथम यह भी रद श्रद्धा है कि अय कोई कल्याण न ररगा।
(१1३१ ४८ )
१६ बस्सुत कोई क्सीसा नहीं? इस प्राक्यफों गल्पयाद-
में न लाओ, कतव्य पथमें लाआ। परायेघरका भोतन इसमे
बाधक है? इस कत्पनासें त्यागो। न तो कोइ बाधक है और न
साधक है । आत्मीय परिणति ही वाघरु और साधक है ।
(९1३1 ४८ 9
२० हम लोगांस सबसे मद्यान दोष यह आ गया है कि
फिसीर वैयाइत नहीं करना चाहते, ग्लानि करत हैं, सम्यक्तरे
अन्जम जो निजुगुप्सा गुण है उसरा आदर नहीं कस्त ।
(१11३1 ४८ )
कु
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