वर्णी - वाणी भाग - 3 | Varni - Vani Bhag - 3

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Varni - Vani Bhag - 3 by विद्यार्थी नरेन्द्र - Vidyarthi Narendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है] आत्म चिन्तन जाती, कपल रूढिके दास वन रहे हैं ओर यही सस्कार हैं जी अनादिसे आत्मामे लग रहे हें । (१1१81४८) १६ हम मोही जीर निर वर परपदा्थोका गुण दोप विदेचना करते हैं, अपनेसे नहीं जानते, केयल बागू व्ययद्वार माउसे सतुष्ट हा जाते हें । (२३1१। ४८ ) १७ अनतानत तीपइर दो गये वे भी मसारका उद्धार नहीं कर गय तय हम शक्तिहीन अल्पज्ञ क्या कर सक्‍ते हें ? (१९। २१४८ 2) “< मलुष्योंम बह शक्ति है कि द्रव्यादि साममीऊे द्वारा सत्र परिम्रहके त्यागी हो सफ्ते दें पराठु मोहके द्वारा में दतमा अशक्त हो रहा हूँ कि गृदवास छोडकर भी स्पात्मकल्याणफ्रे मार्ग- से दर ह ! यद्यपि मुझे नढ श्रद्धा है कि मैं चेतन द्रव्य हूं और साथम यह भी रद श्रद्धा है कि अय कोई कल्याण न ररगा। (१1३१ ४८ ) १६ बस्सुत कोई क्सीसा नहीं? इस प्राक्यफों गल्पयाद- में न लाओ, कतव्य पथमें लाआ। परायेघरका भोतन इसमे बाधक है? इस कत्पनासें त्यागो। न तो कोइ बाधक है और न साधक है । आत्मीय परिणति ही वाघरु और साधक है । (९1३1 ४८ 9 २० हम लोगांस सबसे मद्यान दोष यह आ गया है कि फिसीर वैयाइत नहीं करना चाहते, ग्लानि करत हैं, सम्यक्तरे अन्जम जो निजुगुप्सा गुण है उसरा आदर नहीं कस्त । (१11३1 ४८ ) कु




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