दिव्य प्रणय की दीपशिक्षा | Divya Pranay Ki Deepshika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
102
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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रलमसिह उदार, उनके पुश्न॒ थे प्रणवीर
वश था राठौड, सब मरसिह थे रणघीर
प्राश्ष सतति की भरी, मन में बढ़ी दिन रात
पर न आया वीर के घर मे सुशी का प्रात ॥७॥॥
कृष्ण ! माधव | भक्त वत्सल | मोह का यह जाल
इस जगत की रीति है, मैं भी रहा हूँ पाल
हे मुकुन्द ! लुटा मुझे दो, रश्मि एक उदार
जो उठा दे श्ञान्त मन भे, जिन्दगी का ज्वार ॥८।।
वर्ष बीते, एक दिन आई खुशी की रात
शरद की पूनम, मधुर-सी चाँदवी से स्नात
राधिका अवत्तार ले, उतरी धरा पर प्रात
कौल थी 'धूरब जनम की' पुलक मय था गात 1॥1९॥
कौमुदी से भर उठे ये, भिलमिलाते ताल
श्वेत-वसना नायिका के रश्मियो के जाल
झारदी पूनम, किया ग्रोविन्द ने था रास
बह्यमामा का हुआ था, मिलन-प्रेम-विलास 1१०11
सप्त रगो से बसाया रास का ससार
ग्राम कुडकी में भरी, अनुराग की ऋकार
'रास पूनो जनमिया री”, राधिका श्रवतार
प्राण में उत्समे भर जग का हटाया भार ॥1११॥
अमल कोमल बालिका थी ज्योति का प्रतिरूष
अघुरता साकार, ज्योत्त्ना-गीत एक अनूप
सान्द्र थी मुस्कान मन की, और विधि का राग
मभाकंता था प्राण में से, एक अमर-सुद्दाग 1१२॥।
सेघ की सुषमा, छलकते ताल का आकार
प्यार की कलिका, विभव, महिमा, प्रश्यान्च-पुकार
लाज का मोती, ग्रुलाबो प्रात का अनुराग
एक भोलापन मिला था, रत्त के थे भाग ॥१३॥।
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