लिंग पुराण [खंड 1] | Ling Puran [Khand 1]
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
502
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(५१)
दिव्य कल्पाधं का परिमाण दो हजार आठ सो बासद करोड़,
सोत लाख वर्ष होता है। कल्प इससे दुगुता होता है प्रौर ब्रह्मा के एक
चप॑ में ऐसे एक हजार कल्प होते हैं।””
ये सख्याएँ निस्सन्देह मानव-मस्तिष्क को लड़खडा देने वाली हैँ ।
फहाँ तो योरोष प्रभदीका के विद्वान् भी चार-पाँच सौ वर्ण पहले पृथ्वी
को पौँच छ हजार वर्ण पुरानी मानते थे, भोर श्राज भी इसे प्रधिक से
अ्रधिक दो प्ररव पुरानी जान सके हैं, श्रोर कहाँ हमारे पुराणकार ईसा
के जन्म के समय ही “पृथ्वी के इतिहास!” की गणुना खरबो वर्षों में
कर रहे थे। पर इसमे अविश्वास वी कोई बात नहीं। प्रत्येक ज्ञानी
रुप्रक्ति इस बात की समझता और स्व्रीकार करता है कि देश तथा काल
ध्रतस्तर है । यह पृथ्वी, इसी के समान अन्य लाखो पृथ्दियाँ भोर सूर्य भी
समयन्समय पर बनते-बिगडते रहते हैं। यृष्टि भौर प्रतय का क़म
निरन्तर चलता रहता है। प्रगर हम प्रपने दिभाग में 'झनन्त' की
ऊर्पना कर सवते हो तो उसको तुनना मे प्ररव प्रोर ख़रव की सण्याएँ
भी बिल्कुल छोटी है।
इसीलिए पुराणों में काष्ठा तथा पत्र से लेकर कल्प तक वा
पहिसाप बवलाफर मनुष्यों को बुद्धि मे यह तथ्य बँंठाने की चेष्ठा की गई
है कि भगवान वी इस रचना का कभी भ्न्त नही होता | श्र, खरब
झौर उससे भी भ्रविक पद्म और सद्भू तक की सढ्या ब्यतोव हो जाने
चर भी बह कायम रहती है । हाँ, उसका रूप स्देव बइनता रहता है ।
अगर समस्त विश्व की दृष्टि से विचार किया जाय तो गत्वेक क्षण इसमे
बड़े-बड़े परिवर्तंत होते रहते हैं। वेज्ञानिको का दो प्ररव वर्ष का द्सिब
तो तब से चलता है जब कि पृथ्वी सूर्य से पृथक होकर एक जलते हुए
ईपिण्ड के रूप में झाई । पर पुराणों का हिसाब उस समय हे चलना है
जद सूर्य भी न था भौर मूल प्रति में से महत् तत्व वा प्राविभाव
दोने लगा था 4
User Reviews
No Reviews | Add Yours...