संस्कृत साहित्य में सादृश्यमूलक कलाकारों का विकास | Sanskrit Sahitya Me Saadrashyamoolak Alankaro Ka Vikaas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ तब निश्चित है कि उनमे सादुश्य का ज्ञान होता है। यदि यह कहा जाता है कि सदुश के प्रयोग से वस्तुओ के सद॒श होने का ज्ञान नहीं हो सकता तो हमारा उत्तर है कि केवल इव के प्रयोग से भी सादृश्य का ज्ञान नही हो सकता । वस्तुत सादश्यज्ञान हमे साधम्य के आधार पर होता है। उसे तो ये विद्वान मानते नही और वस्तुओ के सादश्यज्ञान तथा सदृश वस्तुओं के ज्ञान मे भेद करने का प्रयत्न करते है । सद॒श वस्तुओ के ज्ञान की स्थिति में ये विद्वान्‌ उन वस्तुओ के सादृश्य- ज्ञान का निराकरण कर सके हो ऐसी बात नही। उन्हे इस सादृश्यज्ञान को स्वीकार करना ही पडा । परन्तु इन्होने कहा कि तुल्यादि शब्दों के प्रयोग की दशा में सादश्यज्ञान होता तो है, परन्तु वह विशेष्यलेन न होकर विशेषणत्वेन होता है। इवादि के प्रयोग की दशा मे इसके विपरीत वह विशेष्यलेन होता है -- “यथादिना सादुश्यरूपः सम्बन्ध एवं साक्षादभिधीयते ( साज्षाहि- शेष्यतया-प्रभा ) षष्ठीव॒त्‌ तुल्यादिभिस्तु ( सादुश्यविशिष्टधमिप्रतिपादकैस्तु- ल्यादिभिस्तु-प्रभा ) धर्म्यपि ( विशेषणतया सादुश्यामिधानादार्थीत्वमित्यर्थ. प्रभा ) ।--8प्रद्ाक्षारक्का' हि के हू 2 9 यह मत भी उचित नही। यहा ज्ञान का विभाजन वाक्य-रचना के स्वरूपभेद के आधार पर किया गया है। परन्तु ज्ञान का विभाजन ज्ञान के स्वरूपभेद के अ,धार पर ही होना चाहिए, वाक्य रचना के स्वरूप तथा व्याकरण के आधार पर नही । यदि केवल वाक्य-रचना के आधार पर भेद किया जाता है तो 'इद फल सधुरम्‌” और “अस्मिन फले माधुर्यम्‌' इन दोनो वाक्‍्यों से उत्पन्न माधुर्य के ज्ञान मे अन्तर होना चाहिए। परन्तु हमे इस प्रकार के किसी अन्तर की प्रतीति नही होती 1981 ८घल्वत ही (जा श दूसरे यदि वाक्य-रचना के आधार पर सादुश्य में भेद करना ही है तो यह आवश्यक नही कि इवादि के प्रयोग की दशा मे सादश्य विशेष्यत्वेन ही हो । वह विशेषणत्वेन भी सम्भव है। उदाहरणतः मुख चद्ध इव आह्वादकम्‌! इस वाक्य मे इस सिद्धान्त के अनुसार सादुश्य विशेषणल्रेन




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