शान्तसुधारसभावना | Shantasudharas Bhavana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३-स॑सारभावना । 7 श्णु गर्लुत्येका चिन्ता भवति पुनरन्या तंद्धिका । मनोवाककायेहा विक्षृतिरतिरोषाचरजसः || विंपद्नर्ताउब्वर्ते झटिति पतयालोः ग्रेतिपदस । ने जन्तो! संसारे भवति कथमप्यर्तिविरेतिः ॥२॥ भावाथे--दुःखरूपी कीचड़ से भरे हुए इस संसाररूपी खड़े में पग पग पर गोते खाते हुए प्राणी की जब तक एक चिन्ता दूर होती है तब तक उस से भी अधिक दूसरी चिन्ता उसके दिल में स्थान कर लेती है। मन, वच्चन और काया की इच्छा के राग, छेष, क्रोध ओर लछोभ आदि विकार से प्राप्त रजोशुण से युक्त प्राणी के दुःख का नाश इस संसार में किसी भी प्रकार से नहीं होता है ॥२॥ सेहित्वा सन्‍्तापानशुचिजननीकुश्षिकुहरे । ततो जन्म प्राप्य ग्रेचुरतरकष्टक्रमहतः ।। ४११ (७. ए्‌ ञ वित्त र्पशति १० सुखा55भासेय शति कथमंप्यर्तिविरेतिस । जरा ताबत्‌ कौय कैंबलयति मेत्यो! सेहचरी ॥॥३॥ भावार्थ--अपविज्न माता के उद्र (पेट) रूपी गुफा में अनेक प्रकार के दुःखों को सद्द करके बाद में अत्यधिक कणों से कायर होता हुआ प्राणी जन्म लेकर के जव तक भिथ्या खुख के भान से किसी प्रकार अपने ढुःखों का नाश कर पाता है तव ठक आकर के मृत्यु की सखी (साथिन) जण (वुढ़ापा) शरीर को अस-खा लेती है। अर्थात्‌ चुढ़ापा आकर शरीर को शिथिल करके उसके सारे खुखों पर पानी प्लेर देता हे ॥शा इुन्ह्रवजा--छन्दे:- विश्रान्तचित्तो बेत ! बंश्रमीति | पश्ीव रुँद्धस्तलुपेज्जरेड दी ||




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