कसाय पाहुड सुत्त | Kasay Pahud Sutt

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Kasay Pahud Sutt by पंडित हीरालाल जैन - Pandit Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हि। किया है ७1 जयधवलाऊारने लिखा है-- पक य बे गाथासुत्राणि सन्नाणि चूणिम्न्न तु वातिकंप | टीका श्रीवीरसेनीया शेपा। पद्धति-पंजिका।॥२६॥ (नवधवलाधशारित) अर्थात्‌ कसायपाहुडके साथासूत्र तो सत्रहूप £ और उसके लृगिसृत्र य विद्वायरय हैं। श्रीवीरसेनाचार्य-रचित जयधवल्ला टीका है | इसके अनिरिय गावामुओवर सिनसी व्याख्याएँ उपलब्ध हैं, थे या ते पद्धतिरुप हैं या पदिकारुप £ | अर स्वय जयधवलाकार प्रस्तुत मंथके गाथासत्रों श्रीर घुशिमत्रेर किस कक्ष और भांस देखते हैं, यह उन्‍्हींके शब्दोंमें देखिए । एक स्थल पर गिष्पके झारा ये झा ह़िये जाने परगाह यह कैसे जाना ? इसके उत्तरमें वीरसेनाचाय कहते 8-- अर ु /एदस्हादो विउलगिरिसत्ययत्थवंडटपाणदिवायरादो ब्रणिग्गमिय गोदम- लोहज़-जंचुसामियादि-आइरियपरंप्राए आमंत्र गुगहराइरियं पाविय गाहाररवश परिणमिय अज्जमंखु-णागहत्थीहितो जयिवमहमुहणय्रियच्ुणिणिमुत्तायारेंश १रिगाद- दिव्यज्फुणिकिरणादो शब्बदे । जयघ०आ पत्र ३१३ अर्थात्‌ “विपुलाचलके | शिसर पर विराजमान वर्थमान दिवारससले प्रगद होकर सोनम, लोहाये और जस्वृस्वामी आदिकी आचार्य-परम्पराने आकर ओर गुणवराचायकता प्राप्त दीहर गाथास्वरुपसे परिणत हो पुनः आयेमज्षु ओर नाराहस्तीडे द्वारा यतिवृषभका मम ह।कर आर उनके मुख-कमलसे चूरणिसृत्रके आफारसे परिणुत दिव्यप्यनिरप करिएणसे जानते 67.» पाठक स्वर्य अनुभव करेंगे कि जो विव्यध्यनि भ० महावीरसे प्रगट हुए, यही सोग- भाढिके द्वारा प्रसरित होती हुई गुणधराचार्यज्रे प्राप्त हुई और फिर वह इनके द्वारा गायास्पसे परिणत होकर आचायेपरम्पराद्वारा आार्यमक्षु ओर नागहस्तीफा प्राप्त होफ़र उनके हारा चलि- बृपभको प्राप्त हुई ओर फिर वही दिव्यध्वनि चूशिसत्रोके स्पमें प्रगट हुई, इसलिए चूशिसत्रेमिं निर्दिष्ट प्रत्येक वात विव्यध्वनिरूप ही है, इसमें किसी प्रफारफे सन्‍्देह था शज्ञफकी कुछ भी गुजायश नहीं है। प्रस्तुत कसायपाहुड और उसके चूशिसत्रोमें जिस ढगसे बम्तुतत्त्वफा निरूपण किया गया है उसीसे 'वह स्वन्ञ-क्थित है' यह सिद्ध होता है । जैनोंके अतिरिक्त अन्य भारतीय साहिल्वमें चूर्णि नामसे रचे गये फ्िसी साटित्यका पता नहीं लगता | जैनोंकी दि० श्वे ० दोनों प्रम्पराओंमें चूशिनामसे कई रचनाएं उपलब्ध हें, फिर ३ ७५५ अप क>ः चर र्शि तु दोनों ही परस्पराओंसें अभी तक दिगस्वर आ० यव्विपभसे प्राचीन किसी पव्यन्य चूणि- कारका पता नहीं लगा है । है अस्तुत कसायपाहुडपर आ० यतिवृपभकी चूरि पाठकोंके समक्ष उपस्थित है। हसऊे पक कम्सपयडी, सतक ओर सिततरी नासक कर्म-वपयक तीन अन्य सन्‍्थों पर उपलब्ध चूर्ियां भी आ० यतिद्गपभ-रचित हैं, यह इस ग्न्थकी प्रस्तावनामे सप्रमाण सिद्ध किया गया है। उक्त चूरियाले चारों ग्रन्थोंका सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है+- १. कसायपाहुडचूरि-- ७.1० गुणशधर ् ं है हुडचूरि-- ० (ध्र-प्रणीत २३३ गाथात्मक कसायपाहुड-प्रन्पमे 9 'वोच्छामि सुत्तगाह्य जयिगाहा जम्मि अत्वस्मि । 1२॥ 2 लय दंसरमोहस्स सवणाए ॥ ५ ॥ एदाओ सुत्तगाह्मओं सुर अण्णा भासगाहा जग पर हाओ ॥ १० ॥ कृसायपाहुद राजगिरिके समीपस्थ प्वंतका नाम है ।




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