श्री वेदांत संज्ञा | Shri Vedant Sangya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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- (२५) वेदांतसंजशञा ! वाक्कायक्रतकमोंत्कपांदिभेदेन क्मतत्फर्ल चाने-, कृविधमितिज्ञातव्यम्‌ 4 इच्छाप्रारू्ध॑ परेच्छाप्रा- र्पम आनेच्छाप्रारव्धामेति प्रारंब्पत्नयम्‌ ॥१०॥ पथथा स्वेच्छाकृतं मिक्षाट्नादि | तमाध्यवस्थायां शिष्यादिदीयमानमन्नादिक परेच्छाकृत | समाध्यव- स्थायांव्युत्यानद्शायां वा आकाशफलपातवद्क- | स्माज्ञायमा्नं पापाणपतनकंटकवेधादिकंमनि- च्छाकृतम्‌ ॥ है जा०-मिश्रोत्कर्प विशेपमेछे हुए उत्तम कमकां फल निष्कामकर्म के अलनुष्ठानमें निर्विकल्प समाधिपयत जो योग्य होवे ऐसा शरीरकी प्रात होना और मिश्र मध्यम कमेका फल अपने आशअमर्क योग्य काम्य की करने छायक शरीरकी प्रातति होना मिश्र सामान्य कमका फल चॉडि|ड व्याप जादि शरीर प्राप्तहेना ओर मन वचन शरीर इनके काम आदिकी प्रेरणासे मन वचन शरीरसे किये कर्मोका उत्कर्ष आदि भेदुकर जो कम किया जाताहे उसका फल अनेक प्रकारका द्वोताह ऐंऐं जानना|इच्छा प्रारब्ध ९ परेच्छा प्रारण्ध २ अनिच्छा प्रारब्ध ३ ऐसे तीन अकारके प्रारव्ध हैं! १ सो ऐसे कि भिक्षा मांगना आदि भ्पनी इच्छाइत आरब्ध १ समाधि अवस्थामें शिष्य आदे जो कछु अन्न आदि देते ई पे परेच्छाकृत प्रारब्धघ हैं २ ओर समाधि अवस्थामें अथवा जाम्रतूम जाकाझसे फल गिरनेकी तरह जो ऊपरसे पत्थर आदि गिरपडे अथवा काँटा भादि छग॒णवे यह जनिच्छाकृत आरब्यभोगहे ॥ ३ १ भूतग्रतिवन्धी, वत्तेसोनप्रतिवन्ध, आगामिप्रतिवन्ध- जीते ज्ञानप्रतिवन्‍्धक्रतिबन्धनुयमू ॥ ११ | अवणमननादिकाले सवेजडवस्तुसाक्षात्कारों भूत-




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