आत्मज्ञान ईशोपनिषद | Atmagyan Ishopanishad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
225
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका । (२१)
मत्र १५० में कहा है कि / सत्यके आवरणकों दूर करो और सत्यका
अवलोकन करो । ” इसमे भी पुरुषायंका ही उपदेश है।
मन १७- में जीवात्माका नाम “ क्रतु ” कहा है। यह पुरुषा्थफा
सूचक है |
मत्र १८- मे सब कर्मोंके जाननेवाले परमेशवरकी प्रार्यवा है कि वहू
दुष्टतारूप शप्रुके साथ हमारे द्वारा युद्ध करवाके हमको अच्छे मार्गपरसे से
जावे । ” यह भी पुरुषायं हो है।
इस प्रकार इस अध्यायका प्रत्येक मत्र श्रेष्ठ पुरुषार्थका द्योतक है। तथावि
कई कह रहे हैं कि, यह उपनिषद् कर्मयोगका खड़न करता है। क्या इससे
और अधिक कोई आइच्य है? वास्तवमे जैसा इसमें ' कर्म और ज्ञानका
समुच्चय ” स्पष्ट शब्दोसे कहा है वैसाही श्रीमज्भूगवदगीतामे भी कही है ।
यदि गीता संपूर्ण उपनिषदोका सार है, तो सपूर्ण उपनिषदोका भी यही
झभिष्राय होना चाहिये और वसा है भी | परतु कई सप्रदायवाके अपने
सप्रदायके अहकारसे इस ज्ञानकर्म समुच्चयका विरोध करते है। परतु वह
मत इन मतन्रोमे मही हैं। वह उनका निज मत है। इस ईशोपनिषदका तो
स्पष्ट भाव / ज्ञान-कर्म समुच्चय ' ही है।
(११ ) ज्ञान और कर्मके समुच्चयका
मुख्य हेतु ।
आत्माकी चार मकसयायें हैं। जांग्रति, स्वप्न, सुपृष्ति और तुर्यो । इस
श्रवस्थाओमे आरमाकी सब्र शक्ति प्रकट हो रही है। उतत मवत्थाओके नाम
परमात्पाके साथ वैश्वानर, ततैजस, प्राज्ञ और आत्मा ये चार हैं। अर्थात्
आत्माए्रमात्माके साथ उतत चारो अवस्थायें सूक्ष्म भर वृहद एसे सवधित हैं।
चारो अवस्थादें आत्माका वेभव व्यवत करनेके छिय्रे ब्रावशयक ही हैं। सनातन
कालसे इत चारो अवस्थाओमें आत्मा अपनी दक्तिका अनुभव देख रहा है।
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