चतुर्विशति जिन स्तवन | Chaturvishti Jin Stavan

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Chaturvishti Jin Stavan by देवचन्द्र जी - Devchandra Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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! १३ ) श्रीमद्‌ को साम्प्रदायिक आमह पिल्दुल नहीं था । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग जिस प्रकार श्वेताम्बर आचार्या के प्रन्‍्थ पढते है, पैसे ही दिगम्पर परम्परा के ग्रन्थ पढे, इसी पिचार से उन्होंने ज्ञानाणंय के आधार पर श्री ध्यानदीपिका चतुप्पदी का अनुयाद किया होगा अन्यथा वे श्री हेमचन्द्र के योग शाल्त्र का भी, जो इसी विपय पर है, अनुपराद कर सकते थे। भरीमद्‌ ने बिचार। होगा कि वीर भगवान के ये दो पुत्र अकारण द्वी एक दूसरे से विरक्त है, इनकी परस्पर निऊदता दी जैन शासन को उन्नत +र सकती है! श्री कवि यण ने कहा है 'गोमटसार दिगम्यरी बाचना करे हित नह' इससे भी श्रीमद्‌ की निष्पक्ष दृष्ि प्रगठ होती है। यह बडे गुणमाहो थे इन्होने अनेफ द्गिम्बर आचार्यों की स्तव॒ना की है? | ध्यान दीपिका चतुप्पदी के छे रूण्डो ओर अट्ठायन ढालों मे बारह भावना, पच महात्रत धर्मध्यान शुस्लध्यान-पिडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ व रूपातीत ध्यान्त के गूढ तत्त्व पर श्रीमद्‌ ने पूर्ण प्रकाश डाला है। ध्यान विषय के भाषा जैन ग्रथों मे यह पिशिष्ट स्थान रखता है। इसके पीछे १७६७ में वीकानेर मे द्वव्यप्रफाश* नासक ग्रथ बनाया । द्रव्यातुयोग जैसे कठिन त्रिपय को ऊति ने सरलता व सरसता पूर्वक रखा है.। ओीमद्‌ देवचन्द्रजी की दृष्टि मे शुद्ध आत्मस्वरूप ही बसता था उनके रग २ में यही रस व्याप्त था अत उनकी बाणी मे स्मेदा इसही तत्त्व का विवेचन होता धा। इस ग्रन्थ का अतिम पढ यहा दिया जाता है -- परसु ग्रतीत नाहि, पुण्य पाप भीति नाहि, रागदोप रीति नाहि श्रातम तिज्ञास है । साधक को सिद्धि है कि घुज्जये कु बुद्धि है की, रजिये को रिद्धि ज्ञान भान को विलास है॥ सजन सुद्दाय छुल्‌ चद ज्यु चढात्र है हि, उपसम भाजत्र याभे अधिक उल्लास है । अन्यमत सी अफद वबदत है देपचद, ऐसे जैन आगम मे द्रव्य को प्रकाश दे ॥ सयत्‌ १७७४ में इनके दीक्षागुह घाचक राजसागरजी का एय १७५४४ में पाठक झ्ानधर्मजी का स्थगेयास दोगया । १ देखो ध्यान दीपिका घतुप्पदो २ इसको भाषा में थोडा यजमाषा का प्रभाव है ।




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