जानकीहरणम् | Janakiharanam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २८ ) जलूधियारि निपीतवतों .भूजझं वनमुचो रुधिरखवलोहिताः। अतिभरस्फुटितोदरनिर्गता ५ बमु रिवान्नलता दिवि विद्युत:॥ समुद्र का जछ अत्यधिक पी जाने के कारण बोझ से फद गए पेट से बाहर लिकल पड़ी, खून बहने से छाल, अंतड़ियों सरीखी विजलियाँ आकाश में फैल गयीं । अपनी उत्कृष्ट वर्णन-शविति और सन्तुलित दृष्टि के कारण कुमारदास निःसन्देहु अत्यन्त महान कवि होते, यदि उन्होंने चित्रकाब्य का मोह न किया होता। अलंकारों के इस मोह के कारण वास्तविक कविता की सुष्टि में बाघा पड़ी। भारवि ने जिस परम्परा का आरम्भ किया, उसे ही भागे बढ़ाते हुए कुमारदास ने भी एकाक्षर, द्यक्षर इलोकों की रचना कौ। यमकों के मोह से कल्पनाप्रदणता पर अकुश रुग्राये ॥ पादयमक, आदियसक, आद्यत्तममक, निरल्तरानप्रास, दयक्षरानुप्रास, अप॑प्रतिछोम, प्रतिकोम, गोमूथिका, मुरजबन्ध, सर्वतोमद्र आदि को प्रस्तुत करने बाछे इलोकों की रचना से अपने पराण्डित्य और अधिकार की धाक जमाने वाछे उत्तरकालीन अत्य सभी कवियों की माँति कुमारदास ने मी ऐसी रचनाएँ की। इस वोद्धिक कलाबाज़ी और बाजीगरी से एक वार वह विस्मयविस्फारित प्रशंसा-दृष्टि के अधिकारी तो हो सकते हैं, किन्तु यहाँ वे हमे आन्दोलित कर सहज श्रद्धावतति को कहाँ प्राप्त कर पाते हैं? उनकी रससिद्धि और कल्पनाप्रवणता स्वयं विजडित हो जातो है। अपने वर्णनप्रसर, कत्पनाप्रवण और रससिद्ध तथा रुढ़िग्रत्त, अछंकार- विजडित पाण्डित्यजन्य दोनों ही रूपो मे उपस्थित हो कर कुमारदास एक ओर कालिदास के अनुवर्तेन में श्रद्धा के अधिकारी वनते हैं, तो दूसरी ओर मारवि से भी एक क़दम आगे रख कर हमे विस्मित करते हैं, किन्तु सुकुमार कवि मार्ग से हटने के दोपभागी भी बनते हैं। भुमारदात ने एक ओर कलात्मक काव्य की ऊँचाइयों को भी छुआ है, पर दुसरी ओर उनपी कविता ने परम्पराओं को भग्न कर या उनसे आगे वढकर अपनी बिलकुल नयी राहें नही बनायी। थे निश्चय ही फाछिदास की कोटि में नहीं आ सकते, किन्तु उत्तरवर्ती भारचि, माघ और श्रीहए॑ जैसे महान्‌ कवियों के साथ उनकी गणना अपरिहाय॑ रहेगी।




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