ईशावास्य - बोध | Ishavasya - Bodh

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Ishavasya - Bodh by निगम - Nigam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र्‌ है दूसरे महापुरुप | अभीतक मैंने आपके पायभौतिक शरौर के दर्शन भह्दों किये । पर आपकी फोटो की आकृति उनकी घराकृति से बिलद्ुल' मिलतौ-जुलती है । आकृति ही नहीं मिलती, हृदय भी मिलता है। मुफ्े- हो यह देखवर बहुत ही आशय दो रहा है कि जोलो चातें दे कहा करते ये; दौक वही यातें मैं आपकी पुस्तओों में पदता हूँ। कद्दों आए दीनो एक तो नहीं? नहीं। 'न्दर से एक दोते हुए भी धाहर से भेद है। ने द्िमाचल थे आप भागीरथों हैं। अर्थात्‌ उनकी निःरत्ति प्रगट थी और प्रवृत्ति अप्रयट। आपडोी क्रात्ति प्रगद है और निवृत्ति भ्प्गट | है प्ान्तिकारी मदहान्‌ आचार्य ] में चादुसारिता को मद्गापप सममता हैँ । पर यह मैं निर्भीकता पूर्वक एक सचाई प्रगट कर रहा हूँ कि मुझे कोई भी पुराचीन और अ्र्वाचौन आखाय कर्म का रहस्य नहीं समझतासका (भले बे कम का रहस्य जानते हो हों )। पर आपको पुस्तकने ही मुझे कमे का रहस्य समभाया। यह रहस्य समझते ही मेरा जीवन इतना रसमय बन गया है कि कैसे फहूँ। यह तो स्वान्त.-संदेय बात है प्रथम महापुरुपने एकबार मुझ से कह्दा था कि निगम | फ़कर यनो फरकर” मैंने पूदा, फक्र वी क्या पहचान है? वे शेले “४ ज्ञो भूत क/जिकर न॑ करे, भदिष्यत्‌ का फिकट न फरे और बतमान का फकर करे, चह है फकर । ” है महापुरुषों | वह आत्मवल दौजिएं, जिससे यह पकर-दृत्ति आजीवन बनी रहे। ( दूसरे मद्वापुरुष हैं श्रौविनोष्याजी भावे)९ आपका-नो जुछ समझे वही निगम इस पुस्तक के विपय में इस में श्रीविनोदाजी की 'इंशावास्य-दृत्ति” हे अर्य ज्यों-के-त्यों दे दिये हैं। जद्दा आवश्यकता अतीत हुई, वहीं उन्हें सुगम और सुबोध बनाने का पूरा-पूरा यत्न दिया गया है । शाति-मंत्र की व्याह्या प्रो श्रोशीलजी के एक माषण के आधार पर लिखों गई है और मंत्र ६ की व्याख्या में जो भश्ुविद्या पर विचार किया है वह मेरे प्रियवन्धु भ्रौषिष्णदेवजी




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