दर्श आनंद उपनिषद समुच्चय | Darshnanand Upnishad Samuchchay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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' इशोपनिषद्‌ ः र१ ओर जब तक उपासना न हो तब तक उस (ब्रह्म ) के गुणों ०] कं. को भल्ते प्रकार अपने आत्मा में अनुभव नहीं किया जा सकता । अश्न--खब मलुष्य कर्म, उपासना और ज्ञान इस प्रकार बताते हैं अर्थात्‌ कर्म को पहला, उपासना को दूसरा ओर ' ज्ञान को अंतिम साधन बतलाते हैं| अतएव तुम्हारा यह कहना किस प्रकार ठीक माना जाय ? क्योंकि' सब विद्वानों की सम्मति के विरुद्ध है | उत्तर--हसारा कहना सब मसहात्माओं के विरुद्ध नहीं; किन्तु वेदों ओर स्ृष्टि-नियस के अनुसार है; इसमें बहुत-से प्रमाण हैं। प्रथम ऋग्वेद, यजुर्वेंद ओर सामवेद्‌ से मिलता है, क्योंकि ऋचा ऋगू का अर्थ स्तुति है, जिससे ज्ञान प्राप्त करके यजुर्वेद के अनुसार कर्म करने का उपदेश मिलता है ओर साम से उपासना का ज्ञान होता है । दूसरे, तीनों आश्रमों के क्रम से- भी ज्ञान होता हे; क्योंकि अह्मचर्य-आश्रम में शिक्षा के से :ज्ञान और शेप आश्रसों में कर्म इत्यादि होते है । तौसरे, वर्णो के अनुक्रम में भी जाह्मण ( ज्ञानवाले ) को पहले बताया है। संक्षपतः जहाँ तक विचार किया जा सकता है, यही प्रतीत होता है कि पहले ज्ञान ओर उसके पश्चात्‌ कर्म और फिर उपासना होनी चाहिये । जब से ज्ञान को छोड़कर पहले कर्म और फिर उपासना को स्थान दिया गया तब ही से अविद्या का अंधकार फैल गया । ह प्रश्न--ज्ञान से पहले कर्म मानने में'क्या-क्या दोष हैं ? उत्तर-अथम तो प्राकृतिक नियस के विरुद्ध है; क्‍योंकि प्रकृति का यह नियम है कि मनुष्य आँख से देखकर चलता है न कि चलकर देखता है। दूसरे यदि ज्ञान बिना किसी भी कर्म




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