श्रीयोगावासिष्ठ महारामायणम् | Shriyogavashishth Maharamayanam

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Shriyogavashishth Maharamayanam by ठाकुरप्रसाद द्विवेदी - Thakuraprasad Dvivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मन. रु ७ सम! चैराग्यप्रकरण, (१५) अर्थ-हें भगवत्‌ ! इससमय आपका आगमन मेरे लिये साक्षाद्‌ ब्रह्माके आगमनके सहसझ्ञ हैं, हे मुने | आपके आगमनसे में पवित्र और अनुग्रहीत होगया ,॥ ४९ | हैं साधों ! आपके पविन्नआगमनसे जो प्रसन्नता हुई है उससे आज मेरा जन्म सफल होगया और जीवनभी उत्तम जीवन होगया || 4० ॥ है भगवन्‌ ! आपको देखके और प्रणाम करके आज में अपने आत्मामें प्रसन्नताके मारे ऐसे नहीं समाता जैसे चन्द्रमाकों देखके समुद्र | ५१ ॥ है मुनिश्रेष्ठ अं हो वा जिस अथके लिये आप आये हैं उसको कियाही हुआ समझें. क्योंकि आप सवा मेरे मान्यहैं॥ ५२ ॥ रथ न विमर्श त्व॑ कर्तमहलि कीशिक ॥ मगवत्नास्त्यदेय भे त्वयि यत्मतिपयते ॥ ५३ ॥ कार्य- स्थ न विचार त्व॑ं करमरईसि धर्मतः ॥ कर्ता चाहमशेप॑ ते दैवतं परम भचान्‌॥ ५४ ॥ इदमतिम- धुरं निशम्य चाक्य॑ श्ुतिसुखसात्मविदा विनीतमुक्तम्‌ ॥ प्रथितगुणयशा गुणैर्विशिष्ट मुनिश्वप्रभः परम जगाम हर्षम्‌॥ ५५॥ इत्याप चासिप्टमदहारामायणे वाब्मीकीये देवदूतोक्ते मोक्षोपाये भाषानुवादे चैराग्यप्रकरणे विश्वामित्राभ्यागमनं नाम पए्ठ: सगेः ॥ ६॥ अर्थ--है कौशिक ! आप अपने कार्यकेलिय-कुछभी विचार त्त कीनिये क्योंकि आपके लिये जो दीनाय वह वस्तु कुछभी मुझे देनी कठिन नहीं है || ५३ || आप कार्यका विचार न करे में सबकुछ धर्मले करूंगा क्योंकि आप मेरे परम इष्टदेव हैं॥ 4४.॥ नम्रतापूर्वक बरुद्धिमात्‌ राजाकी कर्णोकी सुखदेनेवाी इसप्रकार वाणीकों सुनके गुण और यशसे प्रसिद्ध ऋषियोंमें अछ विश्वामित्र॒जी अत्यन्त हर्षकों प्राप्ततये || ५५ ॥| * इत्या्पे वासिष्ठमहारामायणे वाल्मीकीये देवदृतोंक्ते मोक्षोपाये मापानुवादे वैराग्यप्रकरणे विश्वामिन्राभ्यागमनं नाम पष्ठ;सर्ग: ॥ ६॥ सप्तमः सर्गः । राजाकी प्रशंसा, मुनिके यज्ञके विध्वकी सूचना, और उसकी रक्षाके लिये रामचन्द्रजीकों मागना इन विषयोंका वर्णन इस ७ वे स्गमें किया गयांहै, » श्रीवाल्मीकिस्वाच-तच्छृत्वा राजासिहस्य वाक्यसहुतविस्तरम्‌ ॥ दृष्टरोमा मदातेजा विश्वामि- त्रोउभ्यभापत ॥ १ ॥ सदर राजशार्दूल तवैवेतन्महीतले ॥ महावंशप्रसूतस्य वसिष्ठवशर्वार्तिनः ॥२॥ यत्तु मे हृदतं वाक्य तस्य फार्यविनिणयम्‌ ॥ कुछत्वं राजशार्टूल धर्म समनुपालय ॥३॥ अं धर्म समातिणठे सिद्धचर्थ पुरुपर्पम ॥ तस्य विप्नकरा घोर राक्षसा मम संस्थिता। ॥ 8॥ अर्थ--श्रीवाल्मीकिजी बोढे-राजर्सिह दशरथके अछुत विस्तारयुक्त वाक्यकों रन रोम २ प्रसन्न महा तेजस्वी विश्वामित्रजी बोले ॥ १ ॥ महावंश, रघुवंशमें उत्पन्न और वसिष्ठनीकी आज्ञामें चलनेवाले भूतकमें आपहीकि योग्य यह ( बचन ) है॥ २ || हे राजारसह! जो बात मेंरे हृदयमें है उसके करनेका निश्चय आप कीजिये और धर्मपाछन कीजिये ॥ ३ ॥ हैं पुरुषश्रे्ठ ! में सिद्धिकोलिये यज्ञ आरम्भकरताई राक्षस उसके विप्नके लिये उपस्थित होजाते हैं | ४ ॥ यदा यदा ठ यज्ञेन यजे5ह॑ विद्ुधव्जान॥ तदा तदा 8 से यज्ञ विनिन्नति निशाचरा! ॥ ५ ॥ बहशो विद्विते तस्मिन्मया राक्षसनायका; ॥ अकिरंस्ते महीं यागे मांसिन रुधिरिण च ॥ ६॥ अवधूते तथा- 'भूते तस्मिन्यागकर्दंबकें ॥ छृतश्रमों निरुत्साहस्तस्मादेशाइपागतः ॥ ७॥ न च में ऋोधमु॒त्लएं बुद्धि्भवति पार्थिव ॥ तथामूतं दि तत्कम न शापस्तस्य विद्यते ॥ ८॥ अर्थ--जब २ मैं यज्ञसे देवतागणोंका पूजन करताई तब २ निशाचरढोग मेरा यज्ञविध्वंस करते हैं॥4॥ मैंने बहुतवार यज्ञ किया परन्तु राक्षसोंके नायकोने मेरे यज्ञ रुधिर और मांसकी वृष्टि की || ६ ॥ जब मर यज्ञ * समूहके समृह इसप्रकार नष्ट करवियिगये तब में थकित और निरुत्साह होके चछा आया ॥ ७॥ और है राजन फ्रोध करनेकी मेरी बुद्धि नहींहोती क्योंकि वह कार्य ऐसाही है उसमें शाप नहीं ढ़िया जाता ॥ ४ ॥ नी लीन ++7++“““ 7“ ,._ (१ ) आपको छोड़कर सब देदूँगा और सब कुछ करूंगा यह दूसरा नहीं कहसक्ता ॥ ( ३ / आदत कालाह की ! शष्ट होजातहै भीर यज्ञ पूर्ण नहीद्वोता ॥




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