ईशावास्योपनिषद | Ishavashyopanishad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
630
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सन्त्र ४ ]
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नाप्लुवन्न आप्तवन््तः । तेम्यों
सनो जबीयः मनोज्यापार-
व्यवहित्तत्वाद आभासमातज्रमपि
आत्मनों नेव देवानां विषयी-
भवति |
यस्माजवनान्मनसो5पि पर्व-
मपेत् पूररभेच गत॑ वच्योम-
वह्॒थापित्वात् सर्वव्यापि तदा-
त्मतच्च॑ सर्वसंसारधमवर्जितं स्वेन
निरुपाधिकेन स्वरूपेणाविक्रिय-
मेव सदुपाधिकृताः सर्वोः संसार-
विक्रिया अनुभवतीत्यविवेकिनां
मृढानामनेकमिवच॒प्रतिदेह
प्रत्यवभासत इत्पेतदाह।
तद्घावतो इुत्त
नात्सबिलक्षुणान्सनोवामिन्द्रिय-
प्रभुती नत्येति अतीत्य गच्छति
इब । इचार्थ स्वयमेव दर्शयति
तिष्टदित्ति; स्वयमविक्रियमेव
सदित्यर्थ! |
विषयोंका बयोतन (प्रकाश ) करनेके
कारण चक्षु आदि इन्द्रियाँ ही “देव?
हैं । उन इन्द्रियोंस तो मन ही
चेगवान् है; अतः [ आत्मा तथा
इन्द्रियोंके बीचमें ) मनोव्यापारका
व्यवधान रहनेके कारण आत्माका
तो आसासमात्र मी इन्द्रियोंका
विषय नहीं होता ।
क्योंकि आकाशके समान व्यापक
होनेके कारण वह वेगवान् मनसे भी
पहले ही गया हुआ है। वह सर्व-
व्यापी आत्मतत्त्व अपने निरुपाधिक
स्वरूपसे सम्पूर्ण संसार-धर्मेसि
रहित तथा अधिक्रिय होकर ही
उपाधिकृत सम्पूर्ण सांसारिक
विकारोंकों अनुमंव करता है और
अविविकी मढ़ पुरुषोंको प्रत्येक
दरीरमें अनेक-सा प्रतीत होता है
इसीसे श्रुतिने ऐसा कहा है ।
बह दौड़ते अर्थोत्् तेजीसे चलते
हुए, आत्मासे मिन्न अन्य मन, बाणी
और इन्द्रिय आदिका अतिक्रमण
कर जाता है--मानो उन्हें पार
करके चला जाता है | इवः का
भावार्थ श्रुति 'तिष्ठतः (ठहसनेवाला )
इस पदसे स्वयं ही दिखला रही है ।
अर्थात् त्वय अधिकारी रहकर द्दी'
दूसरोंकों पार कर जाता है।
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