ईशावास्योपनिषद | Ishavashyopanishad

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Ishavashyopanishad by घनश्यामदास - Ghanshyamdas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सन्त्र ४ ] शाइरमाष्याथे श्र ब्क्िीो)0७ ब्थाीक जय _प्र कल न्कट कफ चलिए 12७ मार्पिए कवर -((ड21%- नव: ब्यर्पफ 1.3, ००(( 20% व्यएपऋ नाप्लुवन्न आप्तवन्‍्तः । तेम्यों सनो जबीयः मनोज्यापार- व्यवहित्तत्वाद आभासमातज्रमपि आत्मनों नेव देवानां विषयी- भवति | यस्माजवनान्मनसो5पि पर्व- मपेत्‌ पूररभेच गत॑ वच्योम- वह्॒थापित्वात्‌ सर्वव्यापि तदा- त्मतच्च॑ सर्वसंसारधमवर्जितं स्वेन निरुपाधिकेन स्वरूपेणाविक्रिय- मेव सदुपाधिकृताः सर्वोः संसार- विक्रिया अनुभवतीत्यविवेकिनां मृढानामनेकमिवच॒प्रतिदेह प्रत्यवभासत इत्पेतदाह। तद्घावतो इुत्त नात्सबिलक्षुणान्सनोवामिन्द्रिय- प्रभुती नत्येति अतीत्य गच्छति इब । इचार्थ स्वयमेव दर्शयति तिष्टदित्ति; स्वयमविक्रियमेव सदित्यर्थ! | विषयोंका बयोतन (प्रकाश ) करनेके कारण चक्षु आदि इन्द्रियाँ ही “देव? हैं । उन इन्द्रियोंस तो मन ही चेगवान्‌ है; अतः [ आत्मा तथा इन्द्रियोंके बीचमें ) मनोव्यापारका व्यवधान रहनेके कारण आत्माका तो आसासमात्र मी इन्द्रियोंका विषय नहीं होता । क्योंकि आकाशके समान व्यापक होनेके कारण वह वेगवान्‌ मनसे भी पहले ही गया हुआ है। वह सर्व- व्यापी आत्मतत्त्व अपने निरुपाधिक स्वरूपसे सम्पूर्ण संसार-धर्मेसि रहित तथा अधिक्रिय होकर ही उपाधिकृत सम्पूर्ण सांसारिक विकारोंकों अनुमंव करता है और अविविकी मढ़ पुरुषोंको प्रत्येक दरीरमें अनेक-सा प्रतीत होता है इसीसे श्रुतिने ऐसा कहा है । बह दौड़ते अर्थोत््‌ तेजीसे चलते हुए, आत्मासे मिन्न अन्य मन, बाणी और इन्द्रिय आदिका अतिक्रमण कर जाता है--मानो उन्हें पार करके चला जाता है | इवः का भावार्थ श्रुति 'तिष्ठतः (ठहसनेवाला ) इस पदसे स्वयं ही दिखला रही है । अर्थात्‌ त्वय अधिकारी रहकर द्दी' दूसरोंकों पार कर जाता है।




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