अष्टाङ्ग संग्रह | Ashtamgsangrah

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Ashtamgsangrah by श्री गोवर्द्धन शर्मा - Sri Govardhan Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8 आजसे पॉच सौसे एक हजार वर्ष पहिलेकी लिखी हुई इन्दु, गयदास, डप्हण, चक्रपाणिदत्त, विजयरतज्षित, श्रीकण्ठदत्त, शिवदास सेन, हेमाद़ि, अरुणदत आदिकी व्याख्याओमें मेल, जतुकर्ण, प्राशर, हारीत, ज्ञारपाणि, भोज, काश्यप, भद्रशीचक, वेतरण, निमि, कृष्णात्रेय, आलम्बायन, कराल, जीवक, भालुकि, विदेह ( निमि ), विश्वामित्र, खरनाद, दारुवाह, पौष्कलाइत, दारुक, वृद्धकाश्यप, सात्यकि आदि अनेक आषं-सहिताओके वचन प्रमाणतया उद्धृत किये हुए पाये जाते है. । इससे माह्यम होता है कि इन व्याख्याकारोंके समयमे अनेक आरषसहिताये उपलब्ध थी | सभव है' कि इनमेके कुछ वचन पिछले टीकाकारोने अपनेसे पहिले लिखी गई ग्राचीन व्याख्याओसे भी उद्धृत किये हो | जो कुछ भी हो, वाग्भट इन सब व्याख्याकारोसे भी अधिक प्राचीन थे | उनके समयमे इनसे अधिक अन्य आपष॑तन्त्र सी उपलब्ध होनेकी सभावना है | वर्तेमान-समयमे हमारे देवदुर्विपाकसे आष॑तन्त्रोमे केवल दो, चरक ओर सुश्रुवसहिताएँ सम्पूर्ण तथा भेलन और काश्यपसहिता ( वृद्धजीयकीय तन्त्र ) ये दो खण्डित उपलब्ध होती है । हारीतसहिता सी मुद्रित उपलब्ध होती है. परन्तु उसके आष॑ होनेमे बिद्वानोंको सन्देह हे । स्वय अष्टाह्नलसप्रहकारके कहनेसे भी प्रतीत होता है कि उनके समयमे. पठन-पाठनमे चरक>सुश्रतका ही विशेष प्रचार था | सतहको देखनेसे यह भी पता लगता है कि अष्टाड्रसम्रह अथौत्‌ वृद्ध करभटकारने अपने समयमे उपलब्ध होनेवाली प्राचीन सहिताओका अच्छा आश्रय लिया था | इसलिए कि अनेक महत्त्वके विषय चरक-सुश्रुतसे भी अधिक अष्टाज्नसप्र हमे पाये जाते है| साराश यह कि अष्टाइ्नसप्रहके क्षष्ययनके बिना केवल चरक-सुश्रुतके अध्ययनसे आयुर्वेदका यथाथे अध्ययन सपूर्ण नहीं हो सकता । इधर दूस-पन्दरह सालसे यह अनुभव हो रहा है' कि लोगोमे सरकृषत भाषाके प्रचारका क्स्रश ह्वास हो रहा है | इतना ही नहीं, केवल सस्कृतके मूल अ्रथो और उनकी सस्कृत-व्याख्याओं- छारा अध्यापन-अध्ययनमे' समर्थ अध्यापको और छात्रोंकी सख्या भी उत्तरोत्तर घटती ही जा रही है । ऐसे समयमें' शासत्रकी रच्धाके लिए यह आवश्यक हो गया है. कि भारतकी ग्रान्तीय भाषाओं, से तथा विशेषत राष्ट्रभाषा हिन्दीमे आयुवंदके मौलिकसहिताग्रत्थोंका अनुवाद किया जावे परन्तु थे अनुपाद ऐसे होने जाहिये कि जिनमे मूलके विशद अनुवादके साथ टीकाकारोंके आशय तथा अन्य अन्थोंमे इस विषयपर आये हुए भाषोके साथ तुलनात्मक दृष्टिसे स्पष्ट विचार प्रदर्शित किये गये हो | प्रसंगयशात्‌ तद्विपयक दर्शनादि शाख्नान्तरोके विषयोका भी सोपपत्तिक वर्णन हो | ऐसे अलुवाद करनेके लिए अलनुवादक भी ऐसे होने चाहिये जिनको आयुर्वेदके अच्छे ज्ञानके साथ शाब्लान्तरोंका भी आवश्यक ज्ञान हो । इस श्रन्थके अनुवादक वेद्यमृूषण परिडत गोवधघेन शमो छांगाणीजी उपयुक्त सब गुणोसे सपन्न होनेके साथ हिन्दीके भी अच्छे लेखक है । मेरा विश्वास है कि उनका यह अनुवाद अश्टाज्लसग्रहके सम्यग्ज्ञानके लिए बेचयों और छात्रोको परम उपादेय होगा | अन्तमे मैं अष्टाज्नसप्रहके ऐसे वक्तज्योसहित विशद्‌ हिन्दी अनुवाद करनेके लिए श्रीमान्‌ छागाणीजीको हार्दिक घन्यवाद़ देता हूँ और आयुर्वदके जिज्ञासुओसे सबिनय निवेदन करता हूँ कि वे इस भअन्थके अवलोकनसे लाभ उठावें | साथ ही श्री० छागाणीजीको मैं प्राथना करता हूँ कि वे इस ग्रन्थके अवशिष्ट अशोके अलुवादका छाग्रे भी यथाशक्य शीघ्र ही सपूर्ण करें । श्रीक्न्ब्रन्तरि त्रयोदशी । मुम्बई, स० २०१० यादवजी ज्िकसजी आचाये ठ्र कप




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