तत्वार्थ सूत्र | Tatvarth Sutra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(३) कहा हो और उन्ही उमास्वाति को कुन्दकुन्द का शिष्य मी कहा हो) 1 इम आजंय वाले जो उल्लेख दिगम्ब्रर साहित्य में अब तक देखने में भायें हैं वे सभी दसवी-ग्यारहवी शताब्दी के पीछे के है और उनका कोई भी पग्राधोन विष्वस्त आधार नजर नहीं आता। खास विचारने जैसी बात सो यह हँ कि पाँचवी से नववी शताब्दी तक होने वाले तत्त्वायंसूत्र के प्रसिद्ध और महान दिगम्बर व्याख्याकारों नें अपनी अपनी व्याख्या में कही भी स्पप्टरूप से तत्त्वाथ॑सूत्र को उमास्वाति का रचा हुआ नही कहा हु और न इन उमास्वाति को दिगम्बर, ब्वेताम्बर या तठस्थ रूप से उल्लिखित किया हैं? । जब कि ध्वेताम्वर साहित्य में वि० आठवी शताब्दी के ग्रन्थों में तत्त्वार्थसूत्न के वाचक उमास्वाति-रचित होने के 'विश्वस्त उल्लेख मिलते है और इन ग्रथकारो की दृष्टि में उमास्वाति १ अ्रवणबेल्गोल के जिन जिन शिलालेखों में उमास्वाति को तत्त्वार्थ- रचयिता और कुन्दकुन्द का शिष्य कहा है वे सभी शिलालेख विक्रम की ग्यारह॒वी शताब्दी के बाद के हैं। देखों, माणिकचन्द अन्यमाला द्वारा प्रकाशित जन शिलालेख सग्रह' लेख न० ४०, ४२, ४३, ४७, ५० और १०८ । नन्दिसघ का पट्टावडी भी बहुत ही अपूण तथा ऐेतिहासिकर तथ्य- “विध्ठीन होने से उसके ऊपर आधार नहीं रक्खा जा सकता, एंसा प० जुगल- फरिशोर जी ने अपनी परीक्षा में [सिद्ध किया है। देखो, “ स्वामी समन्तभद्र ' पृष्ठ १४४ से । इससे इस पट्टावली तथा ऐसी ही दूसरी पद्चावालियों में भी मिलने वाले उल्लेखों को दूसरे विश्वस्त प्रमाणों के आधार के बिना ऐतिहासिक नहीं माना जा सकता । “'तत्त्वायंशास्त्रकर्तार गृप्नपिच्छोपलक्षितम । उन्दे गणीन्द्रसआातमुमास्वासिमुनीर्वरम्‌ 0! यह तथा इसी आशय के अन्य गद्य-पद्ममय दिगम्बर अवतरण किसी स्मी विश्वस्त तथा प्राचीन आधार से रहित हैं , इससे इन्हें भी अन्तिम आघार के तौर पर नहीं रकख़ा जा सकता। २ विश्येष स्पष्टीकरण के लिये देखो इसी परिचय के अन्त में 'परिश्षिष्टण




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