तिलकमंजरी | Tilakmanjari

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Tilakmanjari by हरिनारायण दीक्षित - Harinarayan Dixit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महाकवि धनपाल का जीवनचरित 9५ भी, जरा भी नही डरे। उनकी युक्तियो की अकाटयता ने उनके व्यक्तित्व की दृढता में चार-चाँद लगा दिए थे। उन्हे अपने ज्ञान पर पूरा-पुरा भरोसा था। किसी भी कीमत पर वह ऐसी वात नही मानते थे जो उनकी बुद्धि को असगत और भ्रामक प्रतीत हो । जब तक उन्हें जेनधर्म की अच्छाइयों का स्वय अनुभव नही हुआ, तब तक वह इसकी हिमायत करने वाले अपने पिता की भी आज्ञा का उल्लघन करते रहे, और जब उन्हे शोभनमुत्ति एवं महेन्द्रसूरि के सत्सग से जैन-धर्म की अनुपम विशेषताओं की भनुभूति हो गई, तो अपने आश्रयदाता एवं परमप्रतापी राजा भोज की भी परवाह किए बर्गर उस धर्म की जीवनपर्यन्त दुह्ई देते रहे । यह उनकी व्यक्तिगतवैचारिकदृढता का ज्वलन्त प्रमाण है। वास्तव मे जेनी-दीक्षा लेने के बाद धनपाल को अपने व्यक्तित्व की रक्षा मे सारा सुख दाँव पर लगा देना पडा था। क्योकि सनातन धर्मावलम्बी होने के कारण राजा भोज को इनके कुछ ज॑न-सिद्धात्तो से अरुचि रहती थी। फलस्वरूप दोनो मे धामिक मतभेद स्वाभाविक था। लेकिन धतपाल अपने विचारों में सदेव दृढ रहे। वह राजा भोज के दबाव मे कभी नही आए । इस सम्बन्ध से राजा भोज के साथ उनकी अनेक दन्तकथाएँ सुनने और पढने मे आती है। ये दन्‍्तकथाएँ उन दिनो की है जब धनपाल जैनधर्म में दीक्षित हो चुके थे; अहिसा के रग मे रँग चुके थे; और देवी-देवताओ की पूजा के नाम पर फैले हुए पाखण्ड की पोल जान चुके थे । लीजिए, उनमे से कुछ के प्रसग इस प्रकार हैं -- व (क) राजा भोज शिकार के लिए गए हुए थे। अपने साथ धनपाल को भी ले गए थे । साथ में और भी बहुत से लोग थे । राजा ने एक हिरण को निशाना बनाया और अपना तीखा बाण चला दिया | हिरण घायल हो गया । राजा ने उस छटपाते हुए हिरण का वर्णन करने के लिए धनपाल को इशारा किया। धनपाल का दिल रो पड़ा, उसने राजा भोज की नाराजगी की परवाह किए वर्गर दो-टूंक, पर सोलहो आने सही, बात कह डाली--- रसातल यातु यदत्र पीरुष, कुनीतिरेपा शरणों छ्यदोपवान्‌ । विहन्यते यद्‌ बलिनापि दुर्बंलो, ह हा महाकष्टमराजक जगत्‌ ॥ अर्थात्‌ यह सरासर अन्याय है कि एक वेसहारा, निरपराध और दुर्बल प्राणी की हत्या बलवान्‌ करे। ऐसा पराक्रम तो रसातल को चला जाए (तभी कुछ भला हो) । हाय, यह तो वडे ही दु.ख की वात है कि दुनियाँ में अराजकता फैलती जा रही है। इस उपर्युक्त काव्यमयी भत्सेना से राजा भोज नाराज हुआ, तो धनपाल ने अपने विचारो की पुष्टि मे एक युक्ति भी दी--- वैरिणो5पि हि मुच्यन्ते प्राणान्ते तृणभक्षणात्‌ । तृणाहारा सदवेते हन्यच्ते पशव कथम्‌ ?॥ (मुँह में घास दबा लेने से जब मौत के घाट उतार दिए जाने वाले शत्रुओ को भी छोड दिया जाता है, तो फिर हमेशा घास ही खाने वाले इन पशुओं को क्यो मारा जाता है ?)




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