उपासकाध्ययन | Upasakadyayan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
82 MB
कुल पष्ठ :
672
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना ु ६
गृहस्थोंका धर्म साधुका धर्म नहीं हो सकता और साधुका धर्म गहस्थका धर्म नहीं हो सकता । कहा भी है
“विमत्सरः कुचलाहु: सबइन्द्रविवर्जितः ।
समः सवंधु भूतेषु स यतिः परिकीर्तिवः ॥
आपस्नानं ब्रतस्नानं मन्त्रस्तानं तथैव च।
आपस्नानं ग़हस्थस्य व्रतमन्त्रेस्तपस्विन; ॥
न सख्रीसि: संगमो यस्य यः परे ब्रह्मणि स्थितः ।
त॑ं झुचि सवंदा प्राहुर्मारुत॑ च हुताशनम् ॥”
“जो दूसरोंसे हेष नहीं रखता, कुत्सित वस्त्रकों तरह जिसका शरीर मलित है, जो सब प्रकारके दन्द्ोंसे
अछता है, तथा सब प्राणियोंमें समभाव रखता हैं उसे यति कहा है। स््नानके तीन प्रकार हैं, जलस्तान
मन्त्रस्नान और ब्रतस्तान । गहस्य जलूस्तान करता है और तपस्वी व्रत और मन्त्रोंके द्वारा स्नान करते हैं ।
जिसका स्त्रियोंके साथ संगम नहीं है तथा जो परब्रह्म में लोन हैं उस पुरुषकों और वायु तथा अग्निको सवंदा
शुचि कहा हैं।
तथा ज्योतिषांगमें कहा है,
“समग्र शनिना दृष्टः क्षपण: कोपित: पुनः ।
तद्धक्तस्तस्य पीडार्या तावेब परिपुूजयेत ॥7?
“किसीका शति सप्तम स्थानमें हो और क्षपण-दिगम्बर साधु यदि कृपित हो जाये तो शनिके भक्तको
शतनिकी पीड़ामें शनिको ही पूजा करनी चाहिए और क्षपणके भकतको क्षपणकी पूजा करनी चाहिए ।*
प्रजापतिके द्वारा प्रतिपादित चित्रकर्म शास्त्रमें कहा है,
“अ्रमणं तैललिघाह़ं नवसि्मित्तिमियुतम् ।
यो लिखेत् स लिखेत् सर्वा एथ्वीमपि ससागराम् ॥”'
“जो चित्रकार तेलसे लिप्त अंगवाले श्रमणका नयों भित्तियोंसे युक्त चित्र बनाता है वह सागरसहित
समस्त पृथ्वीका चित्र बनाता है
तथा आदित्यमतमें अर्थात् सूर्य सिद्धान्तर्मं लिखा हैं,
डा मवबीजाहु रमथना अष्टमहाप्रातिहायविभवसमेताः ।
ते देवा दशतालकाः शेषा देवा सवन्ति नवतालछाः ॥”!
“संसारके बीजभूत मोहनीय कर्मके अंकुररूप राग्र-हेंषका क्षय करनेवाले और आठ महा-
प्रातिहार्यहप ऐश्वर्यसे सहित अहुंन्त देवकी प्रतिमा दशताल प्रमाण होती है ओर देष देवताओंकी मूर्तियाँ
नौताल प्रमाण होती हैं ।
आचार्य बराहमिहिरक्ृषत प्रतिष्ठाकाण्डमें लिखा हैं,
“पविष्णोमागवता मयाश्र सवितुरिश्रा विदुज्द्यणां
मातणामिति मावृमण्डलरविद: शम्मी:ः सभस्मा द्विजा: ।
शाक्याः स्वाहिताय शान्तमनसो नरना जिनानां विदु
येय॑ देवमुपाश्रिता: स्वविधिना ते तस्य कुयुः क्रियाम् ॥
“भागवत विष्णुकी प्रतिष्ठा करते हैं, सूयंभकत शाकद्वीपीय ब्राह्मण सूर्यको प्रतिष्ठा करते हैं, ब्राह्मण
ब्रह्मको प्रतिष्ठा करते हैं, मातृ-मण्डलके भक्त सात माताओंकी प्रतिष्ठा करते हैं, भस्म रमानेवाले द्विज शिवकी
प्रतिष्ठा करते हैं, बौद्ध बुद्धको प्रतिष्ठा करते हैं, शान्तचित्त दिगम्बर जिनंदेवकी प्रतिष्ठा करते हैं। इस तरह
जो जिस देवका उपासक है उसे अपनी विधिसे उस देवकी प्रतिष्ठा करनो चाहिए ।* |
र्
User Reviews
No Reviews | Add Yours...