वेदा मृत | Vedamrit

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Vedamrit by स्वामी दयानन्द सरस्वती - Swami Dayananda Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अब अब ०० चरु८+ च 1८1० «82८०० 5२२६८०० ७२२००-+ चर पका चाप ॥०+ ध्रप८ 3 चाा7८०० ५३२८०-० शा॑े:+ जी मम जाओ ४7३३ ०७७ #५. मना ७ पल. अतीक परीकटीय 2 अनओ 32५ 3० दर+-कली3ध%+>3 ०९५३ २-३०५५०५ न, ५-९० कली ज 3०. क्‍ी जमीन जमनीम मरना ( बिष्णी- ) सर्वब्यापक ईश्यरके ये ( कमाणि ) सब कर्म ( पश्यत ) देखिए। ( यतः ) जिससे ( घतानि ) शतों फो अर्थात्‌ घधर्मनियमॉंकी (परपशे ) जाना जाता है। यह (इन्द्रस्य ) जीवात्माका ( युज्यः ) योग्य ( सखा ) मित्र है ॥ इस जगतूमे सर्वव्यावक परमात्माके अरूत कर्म स्थान स्थानमें हो रहे है । उनका देख कर इंध्यर के सामथ्ये फी कल्पना करनी चाहिए । चह ईश्वर ॥। जीवास्मा का सश्या मित्र हं'नस ही जीवात्माफके दितके लिय सब कार्य इस जगत्‌ में कर रहा है । यही उसकी झआपार दया है । जब अब कैट स्‍क्ड्य्ध्प्यन्य छा (विप्णा -) सर्वव्यापक परमान्माफा ( तत्‌ ) घट्द (परम पर्द) परम पद है जिसको (सरय ) तानी लोग (सदा! सदा (पश्याति) देखते है । जिस प्रकार ( दिवि इच ) शलोकम ( चछ्ु ) जगत्फा सयरूपी आंख ( झा ततम) खोलकर रखा हैं। उस प्रक्रार ज्ञानी लागोंको परमात्माफा साप्चात्कार होता है, जसे साधा- रण लोगोंकी सय दिखाई देता हे । घिचारकी द॒ृफ्टसि जो लोग इस जगस्‌ को देखते है, उनको परमात्माका साक्षात्कार सत्र होता है। नहिप्रांसो विपन्यवों जागवांसः सर्मिन्धते । विष्णोग्रेत्परम एदम्‌॥ २१॥ ऋ १२२॥ , विष्णो 3 चिप्णुफा (यत्त ) जो ( परम पदम्‌ ) परम पद है ( तस्‌ ) डस विपन्यव ) फथि, ( विप्रास ) ज्ञानी, ( जाशब्यंस ) जाग्रत रहनवाले अर्थात जा दस हात है, / सर्सिधत ) प्रकाशित करते हैं । ,१ ऊफकाय चे है जा शब्दका मर्म जाननवाले होते हैं। ( २) ज्ञानी घ हैं ) तद्विष्णों! परम पद सदा परयन्ति सरयः । ४! है ! दिचींब चक्तुरात॑नम्‌ ॥ २० ॥ ऋ, १२२॥ 1 था: ०<7,५८८+ ८२५६ ध्खः अन्‍न-+++ ०++>लओ ०७८१ ३२०१२ २०. ५४:+ न ५ ला आत्माशानस युक्त हात है । (३) आर जाशत व हे कि जो सुस्त नहीं, ॥ ॥| परन्तु द्दताके साथ सदा पुरुषाथर्म तत्पर रहते है। ये ही परमात्माफे परम | ९, पका प्राप्त करते है ' अश्रन्य सिद्धियां भी इन्हींकों मिलती हैं। अर्थात्‌ ज्ञान, पर ' विज्ञान तथा जागृत रहना इन नीन गुणोल सिद्धि प्राप्त होती है । ते 3 विष्णानु के बीयाएि प्र बोच ये पाधिवानि विममे | 4 ब् । दर्त्तर ब् 1 ३ रजाँसि | यो अस्केसायदुत्तरं सधस्थ विचक्रमाण- ! ं स्तेधोरंगायः ॥| १1१५४४।१॥ | । ५, विप्गोः नु वीयाणि ! ध्यापक देवके हीं अ्रदूभुत पराक्रम ( क॑ प्रयोत ) । 3 शीघ्रात कटता हू; (य ) ज्ञा' पाथिवानि ) प्रथिवीसेबधी £ गजांसि विमम ) ६ ७ ध्ुप5 +» » ०. ० कोच ०-25 कक 0 कण + 2 3. +* जी मब्स- नर सब न» ्््बस्छरू-चज्थजर-झओ स्घ्स्ग्म्स्न्ग्द्रा ग्ड््देर+ छ




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