चित्र मीमांसा -अप्पया दीक्षित | Citramimamsa Of Appaya Diksita
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
24 MB
कुल पष्ठ :
468
श्रेणी :
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No Information available about जगदीश चन्द्र मिश्रा- jagdish chandra mishra
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( २७ )
परम्परा से संस्कृत-साहित्यालोचन में चित्र” और 'चित्रमीमासा! की चर्चा बे
रपटीले तौर पर चल चुकी है। किन्तु औसत दर्जे के विचारक और पाठक इनसी
यथार्थ अर्ंग्रतिपत्ति से परिचित नही है । चित्रकाव्य की परिभाषा, बर्य॑ब्याप्ति सौर
व्यपदेश निर्धारण कुछ कठिन इसलिए भी है कि इसकी व्यापकता की सीमाएँ मंस्क त्त
साहित्य के कई सुप्रतिष्ठित ग्रन्थो मे निर्धारित हो चुकी है, यद्यवि मेरी छोटी बुद्धि मे
अभी भी वह स्पष्ट नही है, दूसरे इस चित्र शब्द के अत्यन्त प्रचलन ने इसके प्रति हर२-
दर लोगो की जिज्ञासा कुण्ठित कर दी है। फिर भी 'चित्र' की परख आज के निय्रत-
प्रिय युग मे आवश्यक है। 'चित्र' को समझे बिना 'चित्रमीमासा” की आलोचना करनेवादे
श्रद्धा मीमासक तो विधेयाविमश के चक्कर मे है ही। परीक्षापाव्य में निर्धारित अज्
को परीक्षा की बेतरणी संतरणार्थ ग्रहण करनेवाले जिज्ञासु पाठक तो उसका स्मरण भर
ही कर लेते है। अत. प्रस्तुत भूमिका के अंश में चित्र और चित्रकाव्य के महत्त्व को
कुछ सधे-बेधे ढड़ से समझने की कोशिश की गई है ।
चित्रकाव्य के ५ मूल तत्त्व हैं --
कल्पना, विचार, भावना, शेली या अलड्ार भौर तोप ।
१. कव्पनातत्त्व---
कल्पना 'सम? की अवस्था है। जब कोई काव्यकार संतुलन की तुला पर एक तार
अनुस्यृत निवेदित यथार्थ को उपस्थित करता है, तब उसमे स्वाभाविक 'कल्पना' का
आधान हो जाता है। काव्य सत्य के इस काल्पनिक स्तर को स्वायत्त करना प्रत्येक
कवि के लिए स्पृणीय है, क्योकि जागतिक जीवन की देनन्दिन उच्चावच स्थितियों
मे उच्छुड्डल राग-हेषो को अनुशासित कर कूटस्थ तटस्थता का निर्वाह करनेवाला व्यक्ति
ही विष पीकर अमृत दे सकता है। कल्पना ही किसी कवि की अमोघ दाक्ति है भर
किसी भी कविकर्म मे इसकी चरम साथंकता है। चितन्रदेंली मे विम्बविधान इसका
स्वाभाविक फल है, क्योकि कवि-कल्पना द्वारा दृश्य जगत को नव-तवत्प प्राप्त हुआ
करते है। इसके आधार पर कवि अमृत्त को मूत्तेंतप में और नीरम वातावरण को
सरसरूप मे उपस्थित करने मे सफल होता है। इसी प्रकार कल्पना की सहायता
से वह भूत अथवा भविष्य की घटनाओ को भी वत्तंमानकालीव घटना डी भाति
चित्र रूप मे उपस्थित कर देता है। चित्रकाव्य मे उपमेय अथवा प्रस्तृत कि
उपमान अथवा अप्रस्तुत की खोज इसी कल्पना की देन है। जत्तः स्पष्ट है कि 'जिययृष्टि
किसी भी काव्य का अनिवायें धर्म है। इसके अभाव में ही काव्य की सरसता बाबिद ही
है। आमतौर पर भासित होनेवाली चतु्दिक्व्याप्त यथा के बीच एक छिपी हुई लि
करपना है, जहाँ मानव हृदय की उस्मुक्त अन्तरनुभूतियों का एकास्त दिवास ) | जो
भी कलाकार इस वैयक्तिक अथवा वर्गीय परिषि से ऊपर एक व्यापक क्षितिय बियार
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