श्री ललितविस्तरा | Shri Lalitvistra

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Shri Lalitvistra by श्री मुनिचंद्र सूरी, Shri Munichandra Suri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २४ ) ष्र्ष् बविपय ४१४ जयवीयराय! म्त्न (प्रणिधान सूत्र) ४१४ ३ मुद्रा-योगमुद्रा-जिनमसुद्रा-मुक्ताशुक्ति-सुद्रा पंचांग प्रणिपात ४१५ आशमय-प्रणिघान तीत्र संवेग-समाधि ४१५ संबेग समाधि में तारतम्य, १ से गुण० में डचित ४१६ भव्निर्वेद-मार्गानुसारिता ४१७ इषप्टफल सिद्धि इप्टय्डपादेय से अविरुद्ध ०». साधना समय अन्य ओऔत्सुक्य वाधक त्तोकजिरुड त्याएए क्यों ९ ७. रुरुजन पूजा ».परार्थकरण छौकिक लोकोच्तार सौंदर्य ४२८ बीवराग के आगे आशसा (प्रणिधान) सफल ४३६ प्रशिधान की आवश्यकता आदि का दर्शक » १% प्रणिधान की आवश्यकदा ओर फल » है प्रणिधान यह निदान से बिलक्षण क्यों ? ४२०-१ प्रणिघान यह सिद्धि का आद्य सोपान » प्रणिधानादि पांच आशयों का स्वरूप » प्रणिधानः प्रवृत्ति: विध्नजयः सिद्धि विनियोग ४२९१ प्रणिधान का अधिकारी २२ प्रणिघान का स्वरूप » विशुद्ध भावना मनसमर्पित, क्रियायथाशक्ति ४२२ प्रणिघान का प्रवल सामथ्ये ४२३ प्रणिधान का गत्यक्ष और परोक्ष उत्तम लाभ, ४२४ श्रद्धा वीये, स्व्ृति, समाधि, प्रज्ञा # जिन पूजा-सलार न करने में दोप प्र्ष् विपय ४२७४ प्रखिधान के प्रत्यक्ष-परोत्त फल और दोनों के समन्वय का रहस्य ४२४ उच्च साधना की कुंजी प्रणि० दीर्घा5डसेवनादि ३, श्रद्धा-वीयांदि वृद्धि-५ ४२६ सकल विशेषण-शुद्धि की ब्रिपरीत रूप से सिद्धि ४२७ (१०-११) प्रणिधान का माद्दात्म्य एवं उपदेशफल ४२७ ततज्ञ को सदुपदेश क्यों ? ४२७ चैत्यबंदन के अनन्तर काये ६ ४२८ चैत्यबन्दन की सिद्धि के लिए ३३ कर्तव्य ४३० तेत्तीस कर्तेज्यों का विभाग है ४३१ अपुनब्रेन्धक की इतर देवादि-प्रणाम की प्रद्धत्ति सत्प्वृत्ति कैसे र » नेगमनयानुसार-नैगमनय के दृप्ठान्त नेगमनय में प्रस्थक दृष्ठान्त ह ४३२ तल्वाविरोधी हृदय का उच्च महत्त्व » समन्वभद्गवा केवल बाह्य धरम प्रवृत्ति से नहीं ४३२ “सुप्रमण्डित-प्रवोध-दर्शन” सुप्तातीर्णदर्शन आदि हृष्टान्त ४३४ विभिन्न दशेन-मान्य आदि धार्मिक ४३४ निवृत्त मवाधिकार ७ अवाप्तभव विपाक 1 » अपुनभनन्‍्धक ४३४ चैत्यवंदन की अवशज्ञा न करें » अन्थकार की अन्तिम अभिल्ापा ४३६ प्रइन के हेतु ४. झ48 5५९ 5 22»




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