श्री ललितविस्तरा | Shri Lalitvistra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
512
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( २४ )
ष्र्ष् बविपय
४१४ जयवीयराय! म्त्न (प्रणिधान सूत्र)
४१४ ३ मुद्रा-योगमुद्रा-जिनमसुद्रा-मुक्ताशुक्ति-सुद्रा
पंचांग प्रणिपात
४१५ आशमय-प्रणिघान तीत्र संवेग-समाधि
४१५ संबेग समाधि में तारतम्य, १ से गुण० में
डचित
४१६ भव्निर्वेद-मार्गानुसारिता
४१७ इषप्टफल सिद्धि इप्टय्डपादेय से अविरुद्ध
०». साधना समय अन्य ओऔत्सुक्य वाधक
त्तोकजिरुड त्याएए क्यों ९
७. रुरुजन पूजा
».परार्थकरण छौकिक लोकोच्तार सौंदर्य
४२८ बीवराग के आगे आशसा (प्रणिधान) सफल
४३६ प्रशिधान की आवश्यकता आदि का दर्शक
» १% प्रणिधान की आवश्यकदा ओर फल
» है प्रणिधान यह निदान से बिलक्षण क्यों ?
४२०-१ प्रणिघान यह सिद्धि का आद्य सोपान
» प्रणिधानादि पांच आशयों का स्वरूप
» प्रणिधानः प्रवृत्ति: विध्नजयः सिद्धि विनियोग
४२९१ प्रणिधान का अधिकारी
२२ प्रणिघान का स्वरूप
» विशुद्ध भावना मनसमर्पित, क्रियायथाशक्ति
४२२ प्रणिघान का प्रवल सामथ्ये
४२३ प्रणिधान का गत्यक्ष और परोक्ष उत्तम लाभ,
४२४ श्रद्धा वीये, स्व्ृति, समाधि, प्रज्ञा
# जिन पूजा-सलार न करने में दोप
प्र्ष् विपय
४२७४ प्रखिधान के प्रत्यक्ष-परोत्त फल और दोनों
के समन्वय का रहस्य
४२४ उच्च साधना की कुंजी प्रणि० दीर्घा5डसेवनादि
३, श्रद्धा-वीयांदि वृद्धि-५
४२६ सकल विशेषण-शुद्धि की ब्रिपरीत रूप से
सिद्धि
४२७ (१०-११) प्रणिधान का माद्दात्म्य एवं उपदेशफल
४२७ ततज्ञ को सदुपदेश क्यों ?
४२७ चैत्यबंदन के अनन्तर काये ६
४२८ चैत्यबन्दन की सिद्धि के लिए ३३ कर्तव्य
४३० तेत्तीस कर्तेज्यों का विभाग है
४३१ अपुनब्रेन्धक की इतर देवादि-प्रणाम की प्रद्धत्ति
सत्प्वृत्ति कैसे र
» नेगमनयानुसार-नैगमनय के दृप्ठान्त नेगमनय
में प्रस्थक दृष्ठान्त ह
४३२ तल्वाविरोधी हृदय का उच्च महत्त्व
» समन्वभद्गवा केवल बाह्य धरम प्रवृत्ति से नहीं
४३२ “सुप्रमण्डित-प्रवोध-दर्शन” सुप्तातीर्णदर्शन
आदि हृष्टान्त
४३४ विभिन्न दशेन-मान्य आदि धार्मिक
४३४ निवृत्त मवाधिकार
७ अवाप्तभव विपाक 1
» अपुनभनन््धक
४३४ चैत्यवंदन की अवशज्ञा न करें
» अन्थकार की अन्तिम अभिल्ापा
४३६ प्रइन के हेतु ४.
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