जातक संग्रह | Jatak Sangrah

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Jatak Sangrah by खेमराज श्री कृष्णदास - Khemraj Shri Krishnadas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाषायकासहितः । (१५) रवींदुवीयें पितमाद्तुल्यो यत्रिशकेडकाइस्य गुणों ग्रहस्थ ॥ $ ० ॥$, बलिएखेट तनूनवाशेशसमस्‍्तु मूर्त्यो प्रतिमोषपि वा स्थात्‌ ६३ _ सूर्य चंद्रमा दोनोंके बढसे पिता माताके तुल्य पुरुष होता है अर्थात्‌ सर्यके बढते पिताके और चंद्रमाके बलसे माताके तुल्य पुरुष होता है। सूर्य जिस अहके निशांशमें स्थित होते उस गहका गुण कहना चाहिये और रप्ननवांशपतिके समान मात्ति कहनी चाहिये। अथवा बलवान्‌ ग्रहके समान मूर्ति कहनी चाहिये॥ ६३ ॥| चिहवोधार्थमगन्यास उद्यभास्करे । अथ शिरोक्षिककर्णनसाकपोलहन॒कक्रमिति विलवादिमे ॥ अधिमुजांशधुजद्यकुक्ष्युरोजव्सनाभ्यमिधा खिलवे ह्िके॥९४॥ यदि रुप्में अथम द्वेष्काण होते तो अथमभाव शिरसंज्ञक है, द्वितीय बारहवां भाव नेत्रसंज्ञक है, तृतीय एकादश भाव कर्णसंज्ञक हैं, चतुर्थ दृशम भाव नासिका- संज्ञक हैं; पंचम_नवम भाव कपोलसंज्ञक हैं! पह अध्म भाव हनुसंतञक हैं, सप्तम भाव मुखसंज्ञक है | यदि हमम्ममें द्वितीय द्वेष्काण होगे तो छम्मभाव केठ और द्वितीय द्वादश भाव केंधा ओर तृतीय एकादश भाव झुजा, चतुर्थ दशम भाव कुक्षि, पंचम नवम भाव छाती, पष्ठ अष्टम भाव पेट और सप्तम भाव नामिसंज्ञक होता है ॥ ६४ ॥ तदनुबस्तिरुपस्थगुंदें5थवा वृषणमुरुकजाजुपदाः ऋमात्‌ ॥ त्रिलवकत्रितंये5्थ तनोः पुरापरदलें5गु्ुदृक्षमद्क्षिणम्‌ ॥ ९५ ॥ यदि रुम्नमें तृदीय द्रेष्काण होवे तो छम्ममाव बाप्ति ( नल ), द्वितीय द्वादश भाव शिश्ष, ठतीय एकादश गुदा, चतुर्थ दृशम इंषण ( अंडकोश ) पैचम मवम रू, पृष्ठ अष्टम जानु ओर सप्तम पदसंज्ञक के तीनों अकारके द्वेष्काणोमे रम्मसे लेकर पहिले छः स्थान दक्षिण भंग होते हें और पिछले छः स्थान वाम अंग हेतिहैं॥ ६५॥ । इह खलेबगमिष्युतेक्षिते मशकपूर्वकलक्षणमादिशेत्‌ ॥ स्वमलवस्थिरंगे सहजो5न्यथा लपरंथात्र रवो खलु काइजः३३॥ जिस आग पाप भहका योग वा दृष्टि होवे उसमें घाव होता है और जो अंग शुम गहसे युक्त वा दृट होगे उसमें मशुक आदिक चिहको कहे यें पाप तर. “अपने राशि वा अपने नवांश वा स्थिर राशिम स्थित होगें तो स्वाभाविक घाव हो जाता है और शुभ ग्रह अपने 'राशि वा नवांश वा स्थिर राशि स्थित हावे तो




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