बालशिक्षा ग्रन्थाङ्क 3 | Balshiksha Granthank 3

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Balshiksha Granthank 3  by फतह सिंह - Fatah Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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- “+सखोेँ ++ नहीं है, क्योंकि अतिप्राचींवकाल में भारतवर्ष की जिस घामिक परियात्रा का: विधान था वह आ्राधुनिक उत्तरप्रदेश के क्षेत्रों से कुरुक्षेत्र होती हुई सिर नदी . के किनारे-किनारे गुजरात से समुद्र-तट का प्राश्नय लेकर जाती थी.। श्रतः इंन- ः प्रदेशों में ममतागमद करने वाले अनेक साधु, सन्त तथा बर्मप्रेमी गृहस्य भारतवर्ष के कोने-कोमे से आकर परस्पर सम्पके स्वपित करते होंगे; जिसके फंलस्वरछूप्‌-एक सम्पके-भाष। का विक्रसित होना स्वाभाविक था ।. जिस समय (सन्‌ १२७६ ई०) - में यह पुस्तक लिखी गई उस समय भिस्सन्देह संस्कृत केवल विद्वानों की ही सम्पक- भाधा रहु गई थी और संमवत्त: जन-साधारण को भापा संस्कृत से बहुत दूर . चली गई थी । संस्कृत से जनमाषा की दूरो दर करने के लिये ही सम्भवतः इस पुस्तक के लेखक ने “संस्कारप्रक्रम” अध्याय में भाषा-शब्दों का संस्कृत के साथ मेल बिठाने का प्रयत्न किया। प्राकृतशब्दों का इस प्रकार संस्कार करने की. प्रवृत्ति बहुत प्राचोन काल से चलो ञझ्रा रही है और इसको हंम ऋग्वेद में प्रयुक्त 'संस्कृत' आदि शब्दों हीं पृष्ठभूमि में भी देख सकते हैं; अतः पारिगनीय- पाकरण द्वारा हुए महान्‌ 'प्रयत्व को एकाकी, प्रथम तथा ग्रन्तिम प्रयत्य नहीं कह संकते |... हद ख्् स्तुत॒ग्रन्य के लेखक ठक्कुर मंग्रामपिह श्रोमालब्ंशोय हूं रसिंह के पुत्र थे। उन्होंने स> १३३६ में इम ग्रन्थ की. रचना की । ग्रन्थकार ने इसको बालशिक्षा! नाम दिया है और अन्त में इसको एक 'लक्षण-द्रव्य-संग्रह कहां है। ग्रंथ के प्रारंभ में 'झों नमः श्रोसरेस्वत्ये कह कर प्रथम - खलोक में 'परव्रह्मं की वन्दना. करके- शारवबभिक कातन्त्र से संक्षेप में. वांलशिक्षा के प्रण॒यन की प्रतिज्ञा. को गई है.। संभवतः इस प्रं।रंभिक - नमस्कार के श्रांघार पर पं० -मोहनंलांल .दलीचद देसाई ने अपने “जन सोहित्य नो संक्षिप्त .इतिहास में ग्रन्थकार को श्रजेत होने का संदेह व्यंक्त कियां _ | है, परस्तु अच्तिम प्रशत्ति के पद्म # में 'वर्धभानाधिक्रशो: के आधार पर- : सम्भवतः उसके जेब होने का भी संदेह किया जा सकता है। अस्तु, यह तो निश्चित है. कि ग्रन्थकार भारतभूमि का एंक ऐसा पुत्ररत्त. था जो जनाजं॑नादि-भेदभाव से ऊपर उठकर राष्ट्रोये हष्ठि से सोच सकता था: ओर वर्तमान भेदबुद्धिव्िध।यिनी प्रवृत्ति के विपरीत एकमात्र राष्ट्रीय हृष्टि : से भाषा-प्रइव पर विचार करके तत्कालीव जनसोघारण की भाषाओं को. :.. सुसश्कृत - रूप प्रदाद करने के लिये झपनस व्याक रख में संस्कार प्रकंम' को लिखे हा सकता था ' के




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