अग्नि विद्या | Agni Vidya

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Agni Vidya by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

Add Infomation AboutShripad Damodar Satwalekar

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
( १५ ) ! अथवा भूमि आदिम है, वह सब मानवप्तंघकाही है। व्यक्तिके पास जो धन है, वह भी उस व्यक्तिको, प्रसंग आनेपर, संघके चरणोपर न्यौछावर करना आवश्यक है। मनुष्योंके पास तन मन घन नो कुच्छ है वह सत्र जातीका ही है, इस लिये योग्य समय आतेही श्रेष्ठ पुरुष अपने स्वेस्वकी आहुति राष्ट्रपुरुषकी पूजा करनेके लिये अर्पण कर देते है। क्यों कि वही स्वेस्व का सच्चा राजा है। दोखिये--- स्ववते सत्यशुष्माय पूर्वरविश्वानराय नृतमाय यही$ ॥ ऋ. १॥५९॥४ ( सु+अवते ) उत्तम हलूचछ करनेवाले, ( सत्य+ञुष्माय ) सच्चे चल्वान्‌ | नृ+-तमाय ) अत्यंत मनुष्योसे युक्त ( वेश्वा+-नराय ) सब मानव संघर्क लिये ( पूर्वी: ) सनातन ( यही: ) बडी प्रशंस्ता होती है।” अथीत्‌ जो मानवसंघ किंवा राष्ट्र उत्तम हरूचकू करता है, सच्चा बल रखता है और संख्यामे अत्यंत अधिक मनुष्योंसे युक्त है, वहीं प्रशंसनीय हैं। इस लिये राष्ट्रीय उन्नति चाहनेवाल्लकी चाहिये कि, वे ( सु+अवेत्‌ ) अच्छी हहूचल करें, ( सत्य+शुष्म ) सच्चा बल प्राप्त करें, ( नृ+तमः ) अपने मनुष्योंकी संख्या अधिकसे अधिक बढावे, ऐसा करनेसेही उसकी सत्र प्रशंसा होगी। तथा और देखिये-- दिवश्वित्ते बहतो जातवेद़ो वेश्वानर प्रारिरिचे महित्वम॥ राजा क्ृष्टीना मसि मानुषीणां युधा देवेमभ्यो वरिवश्वकर्थे ॥ ऋ., १॥५९|५




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now