जैन दर्शन | Jain Darshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
274
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)है। यह क्रोध-मान-माया-लोभ इन चारो रूपो मे रहती है।
अप्रमत्त-संयतत-जो साधु व्यक्त और अव्यक्त रूप समस्त प्रकार के
प्रमाद से रहित है और रलत्रय से युक्त होकर निरतर आत्म-ध्यान
मे लीन रहते है वे अप्रमत्त-सयत कहलाते है। अप्रमत्त-सयत के दो
भेद है-स्वस्थान-अप्रमत्त और सातिशय-अप्रमत्त । जो साधु उपशम
या क्षपक श्रेणी चढने के सम्मुख है वे सातिशय-अप्रमत्त सयत कहलाते
है, शेष साधु स्वस्थान-अप्रमत्त-सयत कहलाते है।
अप्रशस्त-निदान-तीव्र अहकार से प्रेरित होकर अपनी तपस्या के
फलस्वरूप भविष्य मे उत्तम कुल, जाति, रूप और भोग-उपभोग की
कामना करना अप्रशस्त निदान कहलाता है।
अप्रशस्त-निःसरणात्मक-तैजस-वारह योजन लम्बे, नौ योजन चोडे,
सूच्युगल के सख्यातवे भाग मोटे, रक्तवर्ण वाले, पृथिवी व पर्वतादि
समस्त वस्तुओ को जला कर नष्ट करने मे समर्थ और साधु के वाये
कन्धे से प्रगट होकर अभीष्ट स्थान तक फैलने वाले तैजस शरीर
को अप्रशस्त- नि सरणात्मक-तैजस कहते है । यह अशुभ तेजस शरीर
किसी कारणवश क्रोध के वशीभूत हुए तपस्वी साधु के शरीर से
क्रोधाग्नि की तरह निकलता है।
अप्रशस्त-राग-भौतिक सुख-सुविधा की सामग्री के प्रति राग बढाने
वाली कथा या बातचीत करने मे मन लगाए रहना अप्रशस्त-राग है।
अप्रथकू-विक्रिया-अपने शरीर को सिह, हिरण, हस, वृक्ष आदि अनेक
रूपो मे परिवर्तित करने की सामर्थ्य होना अप्रथक् वा एकत्व-विक्रिया
कहलाती है। यह सामर्थ्य देव व नारकी जीवो मे जन्म से ही पायी
जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / शा
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