जैन दर्शन | Jain Darshan

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Jain Darshan by मुनि क्षमासागर - Muni Kshmasagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है। यह क्रोध-मान-माया-लोभ इन चारो रूपो मे रहती है। अप्रमत्त-संयतत-जो साधु व्यक्त और अव्यक्त रूप समस्त प्रकार के प्रमाद से रहित है और रलत्रय से युक्त होकर निरतर आत्म-ध्यान मे लीन रहते है वे अप्रमत्त-सयत कहलाते है। अप्रमत्त-सयत के दो भेद है-स्वस्थान-अप्रमत्त और सातिशय-अप्रमत्त । जो साधु उपशम या क्षपक श्रेणी चढने के सम्मुख है वे सातिशय-अप्रमत्त सयत कहलाते है, शेष साधु स्वस्थान-अप्रमत्त-सयत कहलाते है। अप्रशस्त-निदान-तीव्र अहकार से प्रेरित होकर अपनी तपस्या के फलस्वरूप भविष्य मे उत्तम कुल, जाति, रूप और भोग-उपभोग की कामना करना अप्रशस्त निदान कहलाता है। अप्रशस्त-निःसरणात्मक-तैजस-वारह योजन लम्बे, नौ योजन चोडे, सूच्युगल के सख्यातवे भाग मोटे, रक्तवर्ण वाले, पृथिवी व पर्वतादि समस्त वस्तुओ को जला कर नष्ट करने मे समर्थ और साधु के वाये कन्धे से प्रगट होकर अभीष्ट स्थान तक फैलने वाले तैजस शरीर को अप्रशस्त- नि सरणात्मक-तैजस कहते है । यह अशुभ तेजस शरीर किसी कारणवश क्रोध के वशीभूत हुए तपस्वी साधु के शरीर से क्रोधाग्नि की तरह निकलता है। अप्रशस्त-राग-भौतिक सुख-सुविधा की सामग्री के प्रति राग बढाने वाली कथा या बातचीत करने मे मन लगाए रहना अप्रशस्त-राग है। अप्रथकू-विक्रिया-अपने शरीर को सिह, हिरण, हस, वृक्ष आदि अनेक रूपो मे परिवर्तित करने की सामर्थ्य होना अप्रथक्‌ वा एकत्व-विक्रिया कहलाती है। यह सामर्थ्य देव व नारकी जीवो मे जन्म से ही पायी जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / शा




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