भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिकता | Bharatiya Sanskriti Ke Vaigyanikata

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Book Image : भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिकता  - Bharatiya Sanskriti Ke Vaigyanikata

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भारतीय आचारपद्धति की वैज्ञानिकता धर भारतीय वाडमय के मूलस्लोत अपार सस्कृत ताडमय में पदे पदे आचार तत्त्व के दर्शन होते है। इनका ग्रथन सिद्धान्त और अनुभव के निदर्शनों से परिपूर्ण है। इन्हीं के आधार पर आचार्यों ने एक श्रेष्ठ अनुकरणीय आचार पद्धति का प्रवर्तन किया है। महर्षि यास्क ने आचार्य की निरुक्ति आचार से की है। जीमदभगवदगीता में स्पष्ट ही कहा गया है कि श्रेष्ठजन जो जो (जैसा जैसा) आचरण करते हैं वहीं वही (वैसा वैसा) आचरण अन्य लोग भी करते हैं। वे श्रेष्ठ जन जो करते हैं वह (अन्यों के लिए) प्रमाण होता है और लोगा उसी का अनुवर्तन करता है। नीतिवचनों में भी आचार के सम्बन्ध में यही कहा गया है कि धर्म (आचार) का तत्त्व जानना अत्यन्त दुष्कर है अत बडे लोग जिस मार्ग से जायें अर्थात्‌ उनका जो आचार पथ है वही असाी मार्ग है। अत उसी का अनुसरण करना आचार पालन करना है। मनुस्मृतिकार ने सदाचार को धर्म का एक लक्षण बताया है। सदाचार का अर्थ है सताम आचार अर्थात्‌ सत्पुरुषों (5 सज्जनों) का आचरण। आचार सभी मनुष्यों का सर्वप्रथम धर्म है। जो आचारहीन है उसका उभयलोक नष्ट हो जाता है। आचारहीन और भ्रष्ट पुरुष को न तप न मन्त्रजप न यज्ञ और न ही दक्षिणा पार लगाती है। इसी प्रकार अन्यत्र भी कहा गया है कि सदाचार पूर्वक रहना ही चारों वर्णों का धर्मपालन करना कहा गया है। आचार श्रष्ट प्राणियों सें धर्म मुख मोड लेता है अर्थात्‌ धर्म उन्हें छोड देता है। शास्त्रों द्वारा प्रवर्तित आचार्यों द्वारा अनुमोदित और सज्जनों द्वारा स्वीकृत भारतीय आचार पद्धति मनुष्य मात्र के लिए एक सर्वमान्य आचार सहिता है। भारतीय आचार पद्धति में विवेकतत्त्व की प्रधानता है। इसमें क्रूर कठोरता नहीं है अपितु उदार लचीलापन है। अत इसमें देश काल सापेक्ष्य परिवर्तन सशोधन और परिवर्धन आदि की सम्भावना सदैव वर्तमान है। आचार भारतीय सस्कृति का अभिन्‍न अग है और श्रेय प्रेय का एक सुसस्कृत मार्ग है। भारतीय आचार पद्धति के मूल में हमारे महर्षियों और प्राज्ञ आचार्यों का परमवेज्ञानिक चिन्तन है। यही कारण है कि मानवसभ्यता के साथ ही विकसित सहस्राब्दियों से चली आ रही हमारी आचार पद्धति आज भी अक्षुण्ण है। १ यद्यदाचरति -ष्ठस्तत्तदेवेरतो जन | स यतृप्रमाण करुते लोकस्तदनुवर्तते।। श्रीमद््‌भगवद्गीता ३ २१ २ धर्मस्य तत्त्व निहित्त गुहाया महाजनो येन गत स पन्था। ३ श्रुति स्मृति सदाचार स्वस्थ च प्रियमामन । एतच्चतुर्विध प्राहु साक्षाद्‌ धर्मस्य लक्षणम्‌।॥ मनु २१२ वेदोइखिलो धर्ममूल स्मृतिशीले च तद्विदाम्‌। आचारश्वैव साधूनामात्मनस्तुष्टरिव च। वही २६ आचार परमो धर्म मनु ११ । आचारेण तु सयुक्त सम्पूर्णफलभाग्मवेत्‌ वही ११ ६ एवमाचरतो दृष्ट्वा धर्मस्य मुनयो गतिम्‌। सर्वस्य तपसो मूगमाचार जगूहु परम।॥। मनु १११ ४. आचार प्रथमों धर्म सर्वेषामिति निश्चय । हीनाचारी परीतामा प्रेत्य चेह विनश्यति।। नैन तपासि न ब्रह्म नाग्िहोत्र न दक्षिणा। हीनाचाराश्रित भ्रष्टं तारयन्ति कथब्चन।। कर्मठगुरु पृ १ ५ चतुर्णामषि वर्णानामाचारों धर्मपालनम्‌। आचारभ्रष्टदेहाना भवेद्‌ धर्मपराडमुख || वही प्‌ १




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