भागवती कथा खण्ड १ | Bhagavati Katha Khand -1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[[ ११: साहसकी क्या बात है, सी० पी० में मेरी कई जगह, फर्मेए हैं मैं सदा ऐसे ही जाता हूँ । 'पिताजीका देहान्त हो ग्रयां, भाई सेरे कोई दे नहीं ! में दी दो सालसे काम देखता हूँ । लौकर स्टेशन “पर मुझे बैठा गया था। चेदाँ रेशन पर मुंनीम मिलेगा, उसे तीर दे रखा है, फिर एक श्ञादमीका किराया व्यथं सच क्यों १ मेने 'पपना साथा ठोका । 'झपने यहाँ सांवोंने १२-१३ गर्षेके लड़के घोतो वाँधना नदी जानते 1 दो पैसे का साग नहीं खा सकते । यह पट्टा इतने बड़े फ्मैका काम सम्दहाल रहा है ।” बात यह है, कि झब तो चृत्तितकर, चणसकर, 'ाश्रम संकर ही गया है। पहिले कु परम्पराकी सदोप बृत्तिकों भी मनुष्य जान बूम कर नहीं त्थागते थे। महाभारतका इतना आरी युद्ध इसी श्राघार पर हुआ । धर्मणाजने कहा--हम समर्थ होकर, दूसरेके श्राश्रयें रदकर, भीख 'सॉगकर दिल नहीं काट सकते । यह मारे चर्णघर्मके अनुकूल नहीं है।” चश परम्पराकी बृत्तिमें झंपने पूर्वजोंफे संस्कार हमें स्वत आप होते हैं। राज सभी अपनी कुलागत बत्तिकों छोड़कर झन्य-झन्प चुत्तियोंका '्रांग्रय प्रदण करने लगे हैं। कालधर्म है, घंब उन पैतक चृत्तियोंसे काम भी नहीं चलता, जीवन नि्नाह नहीं. होता । विधर्मी लोगोंके ससगंसे हमारी वह चारणा नष्ट प्राय दो 'चुकी दै। व सो जैसे भी हो तैसे, पेट यालना ही धर्म रह गया है। समयका प्रभाव है । रे, यदद तो मैं चहुक गया, प्सगान्तर कर वैठा। हाँ, तो रासजीको तो यह सममा दिया। किन्तु माघ भासमें चीरम बाबू ्राये। उन्होंने भी इस बात पर बल दिया, कि पुस्तक यहीं से प्रकाशिठ हो दम लोग भी यथाशक्ति देख रेख करेगे । चैत्र के उस्सव पर सभी जुटे थे, शंकरजी, वीरम बावू ; हरिशकरवाबू ,




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