जैन राजतरंगिणी | Jaina Rajatarangini
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
436
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
रघुनाथ सिंह (भारतीय राजनीतिज्ञ) :-
रघुनाथ सिंह (१९११ - २६ अप्रैल १९९२) एक स्वतंत्रता सेनानी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता, तथा लगातार ३ बार, १९५१, १९५६ और १९६२ में वाराणसी लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस के तरफ से लोकसभा सांसद थे। वे स्वतंत्र भारत में, वाराणसी लोकसभा क्षेत्र के पहले निर्वाची सांसद थे। १९५१ से १९६७ तक, तगतर १६ वर्ष तक उन्होंने वाराणसी से सांसद रहे, जिसके बाद १९६७ के चुनाव में उनको पराजित कर, बतौर सांसद, उन्हें अपनी सादगी और कर्मठता के लिए जाना जाता था।
निजी एवं प्राथमिक जीवन तथा स्वतंत्रता संग्राम -
वे मूलतः वाराणसी ज़िले के खेवली भतसार गाँव के रहने वाले थे।उनका जन्म
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शद्गम
दर जैन तरगिणी *
राज तरगिणी रचना परम्परा में जैन राज तर्सगणो का तृतीय स्थान है । इसके पूर्व कल्हण एवं जोनराज ने
राजतरगिणियो का प्रणयन किया था| श्रीवर पूर्व कालीन परम्परा का निर्वाह करता हैं। प्रन्य का छीर्पक
राजतरगिणी देता है । पूर्व दोनों राजतरगिणियों और प्रस्तुत रचना में भेद प्रकट करने के लिए, णैन शब्द
कोड दिय( है. ५
श्रीवर ने इतिपाठ के अतिरिक्त ग्रन्थ का पूरा नाम ओर कही नही लिखा है। प्रारम्म में वह केवल
इतना लिछता है---'इसी जोनराज वा शिष्य मैं श्रीवर पष्डित राजावली ग्रन्थ के शेष को पूर्ण करने के लिए
उद्यत हू! (११७) तरणग तोन में वह ग्रन्थ का नाम जैन राजतरगिणी न देकर, केवल राजतरगिणी लिखता
है--'बपने आंछो से देखे तथा स्मरण किये गये, राजाओ की विर्पात्त वैभव, आदि विकृतियों के कारण, यह
राजतरगिणो किसमें वेराग्य नही उत्पन्न करेगी २ (३०४)
श्रीवर राज कवि था । सुल्तान जेनुत आददोन के प्रश्नय में वृद्धि प्राप्त किया था। स्वामी के प्रति
जाभार प्रवट करने के लिए, राजतरगिणी के साथ सुल्ताव जैनुल आवदीन का सक्षिप्त नाम जैन” जोड दिया
हूँ । दत्कालीन जंगव के राज कवियो की यही परम्परा रही है ॥ “विक्रमाक देवचरित”, “पृथ्वीराज विजय,
“कुमारपाछ चरित॒” “पृथ्वीराज”, विसछदेव” रासो आदि ग्रन्थ इसके ज्वलन्त उदाहरण है। जैनुल आवदीन
के भाम पर जैन नगर, जैन दुर्ग, जैत कुल्पा, जैन कदछ, जेन गया, जैन ग्राम, जैन गिर, जैन लका, जेन
वाठिका, जैन सर आदि रखे गये थे। उस श्ुखला में राजतरगिणो के साथ जैन जोड़कर, उसने परम्परा का
अध्याय जैसे बन्द किया हैं ।
श्रीवर सुह्लान जैनुल आवदीन को जैन नृपति (३-४०२, ४ ४०३) जन भूप (२१२७, ३ १३८,
१४९, ५५६) जन नूप (४५४, २६३०, ३ १५३, १५४) जेत महीपत (२१३२, ३ २६५) आदि जैन
शब्द से सम्बोधित करता है।
जैनुल आवदीन के जीवन काल में उप्तके माम पर, सस्कृत में 'जेन तिलक (१:३ ३४) जैन प्रकाश”
(१४ ३८) “जैन विलास' आदि काव्यों की रचनाएं की गयी थी ६
९ राजकवि *
श्रीवर राज कवि था। राज कवि की वन्दना करता है । (१६१३) कवि की बन्दता वह पुत करता है-+
भूतकालोन जिम राज्य बुदान्त को अपनो वाणी की योग्दता से वर्तमाद करता है, पढ़ योगीरवर कवि
वन्दनीय है / (३४२)
सुल्तान जैनुल आवदोन न श्रीवर का छालन-पालन, पृत्रव॒त किया था। सुल्तान के प्रति इृतज्ञता
प्रकट करते, वह लिखता है--*तत् ततु गुणों के आदान तथा एवं मम्पत्ति के प्रदान पूर्वक ग्राम, हेमादि अनु-
डे
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