न्याय कुमुद चन्द्र भाग 1 | Nayay Kumudchandra Bhag 1

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Nayay Kumudchandra Bhag 1  by महेंद्र कुमार न्यायशास्त्री - Mahendra Kumar Nyay Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भरतानना ३ प्रकरणों के एक संग्रह के रूप में, और उस दृष्टि से उसके चयत्व में विशेष बाधा उपस्थित नहीं होती । अकलंकदेव के अन्य प्रकरणों के देखने से ज्ञात होता है. कि वे अन्थ के प्रारम्भ में संगलगान करने के बाद कण्टकशुद्धि आदि के उद्देश्य से एक पद देते हैं। इस अन्‍्थ में भी ऐसा ही क्रम्त पाया जाता है, मंगछगान के पश्चात्‌ “सन्तानेपु निरन्वयक्षणिक? आदि पद्य के द्वारा इसमें भी कण्टकशुद्धि की गई है । प्रमाण और नयप्रवेश की छुछ बातें यद्यपि प्रवचन- प्रवेश में दुहराई गई हैं तथापि उनमें हृष्टिसेद है और उसका स्पष्टीकरण आगे किया जायेगा। रह जाती है प्रवचनप्रवेश के प्रारम्भ सें सक्छूगान की बात, सो न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता ने सध्य- मन्नल बतराकर उसका समाधान कर ही दिया है। क्‍योंकि श्रन्थ का नाम उसके तीन प्रवेश और भ्रवेशों के अवान्तर परिच्छेदों फे रहते हुए कोई भी विचारक उसे सध्य मज्ञल के सिवाय अन्य वतला ही क्‍या सकता था। फिर भी हमें ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्न्थ के पथ्चम- परिच्छेदान्तभाग को प्रथक्‌ बनाया गया है और प्रवचनप्रवेश को प्थक्‌ , और बाद में दोनों को सकुलित करके लघीयख्य नाम दे दिया गया है | प्रारम्भ के चार परिच्छेद्दों में प्रमाण फे स्वरूप, संख्या, विषय और फल का वर्णन होने के कारण उन्हें प्रमाणप्रवेश नाम दिया गया, पराँचवें परिच्छेद में केवल नयों का बणन होने के कारण उसे नयप्रवेश संज्ञा दी गई और छठवे' तथा सातवें परिच्छेद में प्रमाण नय और निक्षेप का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करके भी श्रुत और उसके भेद प्रभेदों का प्रधानतया वर्णन होने के फारण उन्हें प्रबचनप्रवेश नाम से व्यवह्नत किया । अकलंक के प्रकरणों पर बौद्ध मैयायिक धर्मकीर्ति का बड़ा प्रभाव है। धर्मकीर्ति ने अपने. प्रमाणविनिश्चय और न्यायबिन्दु में तीन वीन ही परिच्छेद रकक्‍्खे हैं। अकलंकदेवने अपने न्यायविनिश्चय में भी तीन ही परिच्छेद रक्खे हैं, अतः संभव है कि इसी का अनुसरण करके लघीयस्रय नाम की और उसके तीन प्रवेशों की कल्पना की गई हो । अस्तु, पहले परिच्छेद में साढें छ कारिकाएँ हैं, दूसरे में तीन, तीसरे में साढ़े ग्यारह, चतुर्थ में आठ, पाँचवे में इ्बीस, छुठवें में वाईंस और सातवें में छ । मुद्रित छघीयख्रय के पाँचवे परिच्छेद में केवछ बीस कारिकाएँ हैं किन्तु स्वोपक्ञविद्वति तथा न्यायकुमुद्चन्द्र की प्रतियों में “लक्षणं क्षणिकैकान्ते” आदि कारिका अधिक पाई जाती है। विद्वति तथा न्यायक्ुमुदचन्द्र की प्रतियों में कारिकाओं पर क्रमसंख्या नहीं दी गई है किन्तु मुद्रित छघीयस्नय में क्रमसंख्या दी है। पता नहीं, यह क्रमसंख्या हस्तलिखित प्रति के आधार पर दी गई है. या संपादक ने अपनी ओर से देदी है । ह विवृत्ति की प्रतियों में प्रत्रचनप्रवेश के प्रारम्भ में निम्न पथ्य अधिक पाया जाता है-- मोहेनेव परोषि कर्ममसिरिह ग्रेत्यासिवन्धः पुनः , भोक्ता कर्मफलस्यथ जातुिदिति अअष्टदुशिजन। कस्मायित्रतपोभिरुधतमनास्चैत्यादिक पन्‍्दते , कि वा तत्र तपोउस्ति केवछामिसे घूर्वेजेडा काचिता? ॥ १ ॥ रचनाशैली आदि से तो यह्‌ पद्म अकलंकदेव का द्वी जान पड़ता है किन्तु न्यायकुमुद्चन्द् की किसी भी प्रति में इसका सझ्ेत तक भी नहीं है। अकलंक के किसी अन्य भ्रन्थ में भी यह्‌ नहीं पाया जाता । पता नहीं, विद्वति की प्रतियों में यद्ट कहाँ से आकर घुस गया है! रं्ककनक,




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