भगवच्चर्चा भाग 4 | Bhagavchcharcha Bhag 4
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
446
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
He was great saint.He was co-founder Of GEETAPRESS Gorakhpur. Once He got Darshan of a Himalayan saint, who directed him to re stablish vadik sahitya. From that day he worked towards stablish Geeta press.
He was real vaishnava ,Great devoty of Sri Radha Krishna.
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२१ सनन््त-महिमा
कृपापर विश्वास करके तन-मन-धनसे उनके शरणापन्न हो जाता
है। परन्तु इसका यह तात्पय नहीं कि वह सब क्रियाओंको
त्यागकर चुपचाप हाथ-पर-हाय रखकर बंठ जाता है या
आलसीकी भाँति तानकर सोता है। वह पुरुपाय नहीं फरता--
इसका अर्थ यही है कि वह पुरुपायंका अभिमाव अपने अन्दर
नहीं उत्पन्न होने देता, परन्तु अपने तन-मन-धन--सबकों
भिगवान्का समझकर अनवरत उनऊो सेवार्में तो लगा हो रहता
है, क्षणभर भी स्वच्छन्द विश्वाम मही लेता। वस्तुत: बही परम
पुरुषार्थी होता है, जो अपनेको भगवान्फे परतन्त्र मानकर यन्त्-
बत् उनकी सेवामें लगा रहता है | जी मनुष्य यह कहता है कि
मैं भगवानूक शरणापन्न हूँ, मुझे तो उन्हीकी कृपाका भरोसा
है, परन्तु जो भगवान्के आज्ञानुसार सेवा नही करता, वह या
तो स्वयं धो में है था दुसरोंकों घोया दे रहा है। शरणागतिमें
साधनका या पुरुपार्थथा अथवा यो कहें कि अमिमानयुक्त
कर्मका रावथा अभाव है; क्योंकि शरणामत्तिके साधककों साधन
या पुरुषार्यकरा आश्रय नहीं हीता । परन्तु उसमें भगवत्मेवारूप
कमका कभी अभाव नहीं होता । भगवत्मेचाके लिये तो उसका
सब कुछ समर्वित ही है। परन्तु ऐसे मक्ततो भी ज्ञानकी आव-
श्यकता है, धावकी सुदृढ़ मीवपर ही भक्तिफ़ी विशाल ओर
ममोहर अट्टासिका साड़ी हो सकती है और ज्षानमे प्रेम तो है ही ।
अतएव यद्यपि इन दोनोंका समन्वय है, तथापि एफफकी प्रधानतामें
दूसरा छिपा-सा रहता है। इससे वह स्पष्ट व्यक्त नहीं होता ॥
गीतोक्त निष्फरामकर्मयोग तो अहैतुकी सक्रिय भक्तिका ही
एक रूपान्तरमात्र है। निष्कामकर्मयोगी कर्ममें आसक्ति और
भ० च० भा० ४-३०--
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