सुगम भक्तिमार्ग | Sugam Bhaktimarg

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Sugam Bhaktimarg by ब्रह्मानन्द सरस्वती - Brahmananda Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बेच स्व्सज्ञ धनी-गरीबस वोई भेद नहीं । महल चाहे जितना यड़ा हों सोनेके लिये केवल साढ़े तीन हाथ ही जगह चाहिये 1” यायनि कहा-तिमने सुना होगा कि एक गरीम भिसमगा जाड़े के दिनोंमे तीन हाथी चददर डे ठिटर रदा था । जय मुँह दकता तो पैर नग हो जाते श्लीर पैर दक्ता तो सुहद नगा हो जाता। स्द्दर बढ़ तो सकती नहीं, वह परेद्यान या। उधरसे एक मस्त महात्मा का निकले । उन्हनि उसकी परेशानो देखकर कहा--' अरे मूस ! मगर दर नहीं धढ सकती तों कया तू छोटा नहीं हो सकता १” मिसमगरी समझमभे बात भा गयी, उसने अपना पैर सिंकोड़ लिया । अब उसका सारा मदन थददरके नीचे था । लख्चकों जितना नढ़ाभो उतना बढ़े, जितना घटाओ उतना घटे । जय तुम शारारिक आरामके ल्ये इतना उद्योग करते हो तय क्या मानसिक सुल- शास्तिकें लिये लालच भी नहीं छोड़ सकते ? इसीने तो गरीब सौर 'धनीवा भेद पैदा क्या दे । इसके मिट्ते दी सत्र एक-से हो जाते हैं और सभी वस्तुओंको मगवानवी दी हुई समझ कर उनका उपयांग करते समय परम सुस-द्यान्तिका अनुभव करते हैं।” मैने पूछा-न चाय, जम कसी ऐसा जान पढ़ता है कि मैं क्सीका कपापाम यनकर उसकी टी हुई वस्तुओंका उपयोग कर रद हूँ तन उपकारके भारसे दब जाता हूँ श्रीर ऐसे अवसरापर द्ावके वारण उसने कहे बिना भी अपने सनय विपरीत काम करने रगता हूँ--यद समझकर कि दसीमें उसकी प्रसज्ता शरीर भलाइ है 17 भागा हँसे। उन्होंने कहा- जयतक मेरा-तेरा, इसका- उसका भेद बना है तमतक ऐसा ही होता है । यदद सय सनवी




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