महाविद्या | Mahavidya

Mahavidya by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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किजो श्रनादि काले से हे भर जा करपना अथवा निचार | में नहीं आप्तती, तथें शिलुकों 'परब' अधता जरवाने कर | कहत द उसही मे से यांटि उत्पन्न होती € आर नियत समय | पर्येत अस्तित्व में रहरूर फिर पा़े उसही में लय दोनाती हे | रन्त जो सृष्टि उत्पन्न होनेके आरम्भ में 'छागास' नामक शक्ति | ास्तित्व में भाती हैं वह स्वयंही आसाप्त सहित हो गौर जो | उसके श्राभास सेही सष्टि का काम चलता हो तोकिर उसकोही | | एक इंश्वर कहन मे कया हानि है थि०--वहहीं इंस्वर कहने भ आता है क्योंकि समस्त साष्टि | म सबसे पाहले का ज्ञात ( जानने वाहा अथवा आभास घारण ह फरने वाला ) वहीं है । और, उसमंसेही 'अगगितज्ञाता श्रथंत्रा जि, किंरणको रूपमें प्रथक होगयें हैं । सबसे गप्त अथवा छिपा पदार्थ यह शक्ति अथवा इश्वरहां है, समस्त नाव इसहां शक्ति | ; से पृथक होकर फिर स्वयं अपन का पहचान उसग मिलजातह ! । हों की मुक्ति-हुई कही नाती है । ऐमी दक्तियं *परत्रह्न के | मातर ता श्रगणित हैं परन्तु -एसा होते हुएमी इश्वरको एकही ! गिनना चाहिये | तस॒ही वह समस्त सष्टि क ऊपर अथवा वह ! !! उससे पथक नहीं हे परन्तु समस्त साष्टे में रहे हू चेतेन्थका मुख क बिवलकतणजजरपबसायाडरययबयसररससयस्यस्थर्जससमपिपयससप्ससससावर्थ रब! |इदाटवा .. कज़दकदऊदबचयादसा *. स्थल सका” बन्द




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