उन्हे हम कैसे भूलें | Unhe Hum Kaise Bhulen

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Unhe Hum Kaise Bhulen by विनोद विभाकर - Vinod Vibhakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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. झमिट रेखाएं १३ मेरे दिल पर उनके उस करुख॒ क्रव्दन की याद झाज भी सजीव है जो उन्होने मेरे श्रतिम भइया की मृत्यु पर किया था । पहले पिताजी भर फिर इस भाई के जाने से ऐसा लगा कि जैसे उनके घैय॑ ने भ्रपना बाघ तोड दिया हो । मेरे इस भैया से वे बेहद प्यार करती थी । झ्रपने झाकषंक व्यक्तित्व और अक्लमदी के कारण वह था भी इसी काबिल । श्रौर इसी की जिन्दगी की खातिर उनको अपना गाव भी छोड़ना पडा था । लेकिन फिर यह सोच कर कि मौत के झागे किसी की नही चलती उन्होने जैसे सव कुछ भूल कर झ्रपना सारा स्नेह भ्ौर दुलार मुझ पर उडेल दिया । अपने सारे प्रयत्तो श्रौर संघर्षो का रुख मेरी श्रोर सोड दिया । उस समय मे ही तो उनकी आशा का एकमात्र केन्द्रविन्दु रह गया था मेरा जन्म दिल्‍ली से हुआ था और यहां आने से पूर्व हम ग्राम जौला जिला सुजफफरनगर से लम्बे समय से रहते भा रहे थे । गाव मे हमारी झ्राधिक स्थिति सुदढ़ और समाज में काफी मान- प्रतिष्ठा थी । जैन धर्म के सुसस्कार होने से पिताजी अपने दयालु स्वभाव के कारण सत्र प्रशसित थे । वे बुराई के वदले भी सदैव भलाई करने मे तत्पर रहते थे । माताजी भी इस मामले मे उनसे किसी तरह पीछे न थी । वे अपने रूप-गुणो सहज-सरल और सलज्ज स्वभाव के कारण गाव भर मे चर्चित थी । श्रम घील अर शुचिता की साक्षात मुति समभी जाती थी । श्रस करने में अस्मा का जवाब न था । आालस्य उनको बिल्कुल नही छू गया था । सुबह से देर रात गए तक वे काम में जुटी रहती । इतना कार्य करती कि उतना आम भौरतो के वश की बात नही थी । उनके हर कार्य मे इतनी चुस्ती-फुर्ती रहती कि




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