बड़ा जैन ग्रन्थ संग्रह | Bada Jain-granth-sagrh

Bada Jain-granth-sagrh by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ही रलकरणरड-धाधकाचार-हिन्दों प्ानुवाद । प्‌ गिरि से यिरो शुद्ध हेऊ गा, जले आग में पावनतर । . ऐसे मन में विचार रखना, लाकमूढ़ता है प्रियवर ॥ २० ॥ देवमूढ़ता 1 ः दई देवता की पूजाकर, मन चाहे फल पाऊंगा । ' मेरे होंगे सिद्ध मनारथ, लाभ अनेक उठाऊंगा ॥ _ ऐसी गाशायें मन में रख, जा जन पूजा करता है । रागद्दंप भरे देवों को, देवसूढ़ता धघरता है ॥ २१ ॥ गुरुसूढ़ता 1 नहीं छोड़ते गाँठ-परिय्रह, भारंभ के नहिं तजते हैं । भवचकों के भूमनेवाले, हिंसा का हो भजते हैं ॥' साघु सन्त कहलाते तिसख पर, देना इन्हें मान सत्कार 1 है पाखरिडमूढ़ता प्यारी, छेडड़ो इसके करो विचार: ॥२२॥ _.. थभाठ मद 1 शान जाति कुछ पूजा ताकत, ऋद्धि तपस्या भर शरीर । इन भाठों का भाध्रय करके, है घपणरड करना मद थीर ॥ मद में था निजधर्मिजनों का, जा जन कर्ता है अपमान । चह खुघर्मके मान भंग का, कारण होता है ज्ञान ॥ रद ॥ अगर पाप का हो निराघ तो, और सस्पदा से क्या काम ! अगर पाप क़ा आाधय हो ते, और सम्पदा से क्या काम ॥ मित्रो यदि पहला होगा ते, दुख का उदय नद्दों होगा 1, यदि डुसरा दोगा तो सम्पद, होने पर भी डुखे होगा ॥२७॥ सम्यग्दशीन की महिमा । क सम्यग्दर्शन की शुभ सम्पद्‌, हाती है जिनके भीतर । मातंगज हो काई भी है, मददामान्य हैं वे छुधवर ॥




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