हरिजन | Harijan

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Harijan by महात्मा गांधी - Mahatma Gandhi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[रह] जो वस्तु जगत के सामने नहीं रखी जा सकती जो वस्तु हृदय आर बांद्रि का स्पशे नहीं करती वह सनातन धमं नहीं हो सकती । क्या हिन्दू घर्म इतना उत्वा उठेगा कि वह बदनाम अस्थविश्वासों से चिमटा रहने ओर बुरे रीति-खिजों की नकल करने की जगह मर जाना पसन्द करेगा कि ज कर ः गीता कहती है कि देवों को संतु् रखना चाहिये । देवता आसमान पर नहीं है । अप के देव अन्त्यज हैं ग्रापके दूसरे देव अस्पृश्य हैं । फ ौ कोई प्राखी जन्म से दी अ्रस्पृश्य है और उसे झस्पृश्य अवस्था में ही मरना पड़ेगा ऐसा -हिन्दू-धर्म में नहीं है यह मेरा विश्वास है। ऐसे श्रधर्म को धर्म का नाम देना अधमं करने के समान है । जो अस्प्रश्यता आज व्यवहारय नहीं हे उसे त्याग करने का मैं हिन्दुओं से. आग्रह क्र रहा हूँ । फ अस्पृश्यता के साथ संग्राम एक धार्मिक संग्राम है । यह संग्राम मानव-सम्मान की रक्षा के लिए हे । यह संग्राम हिन्दू-घर्म में बहुत ही बलवान सुधार के निमित्त है । यह संग्राम -सना- तनियों के खाईदार गढ़ों के विरुद्ध है । इसमें विजय निश्चित हे और यह विजय सच्चे हिन्दू-युवकों के घैय॑ और वलिदान के योग्य ही होगी । थैय॑ की विधि इस संग्राम में दत्तचित्त नवयुवर्कों के लिए ात्मशुद्धि की विधि है । यदि वे इसमें लगे रहे तो उनकी गणना भावी-भारत के निर्माण- कर्ताओओं की पंक्ति सें की जाएगी । ः फ ईश्वर प्रकाश है झंघकार नहीं । वह प्रेम है छरणा नहीं । वह सत्य है सत्य नहीं । एक ईश्वर ही महानू हे हम उसके वन्दे उसकी चरणु-रज हैं । आश्रो हम सब मिलफैर नम्र बनें श्र ईश्वर के छोटे से छोटे बन्दे के भी इस दुनियाँ में रदने के हक को तसलीम करें । के अस्प्श्य सदा के लिए अस्पृश्य नहीं बना रह सकता । जब एक बार यह मान लिया गया कि केवल दादशाक्षर ( ड नमो भगवते बासुदेवाय ) मन्त्र का उच्चारण करने से कोई. भी अस्पृश्य स्प्रश्य हो सकता हे तय अस्पृश्यता का गढ़ तो उसी वक्त ढह गया । जैसी श्रस्प्रस्यता आज मानी था चुरती जाती है उसके समथेन में सनातनियों ने अब तक एक थी शास्त्रीय चचन उपस्थित नहीं किया । ४ जे ः डे फ




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