रसखान | Raskhan

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Raskhan by चंद्रशेखर पांडे - Chandrashekhar Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तत्कालीन काव्यघारा का स्वरूप श्दे भेद का ज्ञान दूसरों को भी कराने का प्रयल किया था किंतु उनकी शिक्षा- पद्धति में वह घ्ाक्पण श्र चह सहानुभूति न थीं जो जनता के हृदय पर जम- कर बेठ जाती है । उन्होंने हिंदू-सुसलमान दोनों को जी भरकर काइ़-फटकार सुनाई जिसे ऊँचे उठे हुये कुछ ही लोग समक सके श्रोर लाभ उठा सके किंतु अधिकांश जनता सें एक प्रकार की चिंढ़-सी उत्पन्न हो गयी । मजुप्य-मजुप्य के बीच जो रागा- त्मक संबंध है उसे कबीर व्यक्त न कर सके । हिंदू मुसलमान के हृदयों को मिलाने- चाले प्रेमसार्गी सूफ़ी कवि ही थे जिन्होंने हिंदुओं की कहानियों को उन्हीं की चोली में बड़ी लगन के साथ कहा । रसखान के जन्म से २०-१५ यर्प पूर्व कुतबन कवि ने स्रगावती नाम की क्द्दानी लिखी थी । उसके चाद मंकन कवि ने मघुमालती नाम की एक कहानी लिखी । ये झ्राध्यात्मिक कहानियां विशेष लच्य रखकर लिखी गई थीं श्रीर रोच- कता लाने के लिये तथा अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए संकेत रूप में हिंदू. पात्रों की करुपना कर ली गई थी । इस शाखा के मदाकयि जायसी रसखान से कुछ दी पहले हुये थे । सं० १६०० के लगभग उन्हेंनि भ्रपने प्रसिद्ध अंथ पावत की रचना समाप्त की थी । सं० १६१३ में उसमान ने चित्रावली नामक पुस्तक लिखी । श्रागे भी यह घारा बहती रही जिसमें शेख नयी कासिमपाशा तथा नूर- सुदग्मद श्रादि कवि हुये जिन्होंने सांसारिक प्रेम-चर्णन द्वारा श्वाध्यास्मिक रहस्य का उद्धादन किया । इस शाखा के सभी कचियों ने श्रपने अंथों के लिए श्रवधी भाषा छुनी यथपि चहद श्रधिक परिप्कृत न होकर वोलचाल की ही ्रवधी थी । सभी कवियों ने दोहे-चौपाई में श्रपनी कहानी कही । इन कवियों के प्रेम की पीर का प्रभाव कुछ अंश में रसखान पर भी पढ़ा था । श्रंतर केवल इतना ही था कि सूफ़ियों का विरह निर्विकार निराकार परमत्रह्म परमात्मा के लिए था ौर रसखान का विरह साकार सगुण भगवान श्रीकृष्ण के लिए था । प्रेम-पीर की तीघ्रता दोनों सें समान थी । जायसी कहते हैं-- का भा पढ़े गुने झउ लीखे । करनी साथ किये श्र सीखे || श्ापुइ खोइ उद्दइ जो पावा सो वीर मन लाइ जनावा ॥|




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