भारतीय संस्कृतिके आधार | Bharatiya Sanskritike Adhar

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Bharatiya Sanskritike Adhar by श्री अरविन्द - Shri Arvind

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्री अरविन्द - Shri Arvind

Add Infomation AboutShri Arvind

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
द भारतीय संस्कृतिके आधार आक्रमण किये बिना और यहांतक कि ऐक्यकी आधारभूत भावनाके साथ करती है। परंतु जबतक संघषंके तत्त्वका राज्य है तबतक मनुष्यको हीन- तर नियमका ही सामना करना होगा युद्धके ठीक बीचमें हथियार डाल देना घातक ही होगा। जो संस्कृति अपनी जीवंत पृथक्ताकों त्याग देगी जो सम्यता अपनी सक्रिय प्रतिरक्षाकी उपेक्षा करेगी वह दूसरीके द्वारा निगल ली जायगी और जो राष्ट्र इसके सहारे जीता था वह अपनी आत्माकों खोकर विनष्ट हो जायगा। प्रत्येक राष्ट्र मानवजातिके अंदर विकसित होते हुए आत्माकी ही एक विदिष्ट शक्ति है और वह जिस शक्ति- तत्त्वका मूते रूप है उसीके सहारे वह जीवित रहता हैं। भारतवर्ष भारत-दक्ति है एक महान आध्यात्मिक परिकल्पनाकी जीवंत शक्ति है और इसके प्रति निष्ठावान्‌ रहना ही उसके जीवनका मूल सिद्धांत हैं। क्योंकि इसीके बलपर उसकी अमर राष्ट्रोंमें गणना रही है यहीं उसके आइचयें- जनक स्थायित्वका तथा उसके दीघंजीवन एवं पुनरुजजीवनकी शादवत दक्ति- का रहस्य रहा है। संघषके तत्त्वने एशिया और यूरोपके बीच एक युग-युगव्यापी ढुंद् और प्रबल संग्रामका व्यापक ऐतिहासिक रूप धारण किया है। इस संघष इस पारस्परिक दबावका एक भौतिक पक्ष तो रहा ही है साथ ही इसका एक सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक पक्ष भी रहा है। भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों दृष्टियोंसे यूरोपने जीतने आत्मसात्‌ करने और प्रभुत्व जमानेके लिये एशियापर पुनः-पुन आक्रमण किया है और इसी प्रकार एदियाने यूरोफ्बर । शक्तिके इन दोनों समुद्रोंमें लगातार बारी-बारीसे ज्वार-भाटा आता रहा है ये पीछे हटते और आगे बढ़ते रहे हैं। समस्त एदियाके अंदर कम या अधिक प्रबल रूपमें कम या अधिक स्पष्ट रूपमें आध्यात्मिक प्रवृत्ति सर्देव विद्यमान रही है परंतु इस मूलभूत विषयमें भारत एदियाकी जीवन-प्रणाली- का सार रूप है। मध्य युगमें यूरोपके अंदर भी एक ऐसी संस्कृति थी जिसमें ईसाई विचारके प्रभुत्वके कारण आध्यात्मिक उद्देश्य ही प्रमुख था (पर यह ध्यानमें रहे कि ईसाइयत भी एशियासे ही निकली थी) उस युगमें दोनोंमें एक मूलभत समानता थी पर साथ ही कुछ भिन्नता भी थी। फिर भी मोटे तौरपर सांस्कृतिक स्वभावमें विभेद सदा ही बना रहा है। कुछ दताब्दियोंसे यूरोप जड़वादी लुटेरा और आक्रामक बना हुआ है और आंतर तथा बाह्य मानवकी समरसता खो चुका है जो कि सम्यताका वास्तविक अर्थ तथा सच्ची प्रगतिकी अचूक यार्त है। उसके आराध्य देव हैं भौतिक सुख-सुविधा भौतिक उन्नति और भौतिक कार्यकुशलता । आधुनिक यूरोपीप्र




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now