सिन्धु सभ्यता | Sindhu Sabhyta

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Sindhu Sabhyta by धीरेन्द्र वर्मा - Dheerendra Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८. सिंघुन्सभ्यत्ता के निर्माता श्७ < डालने का भी यत्न किया या 1* मोरें-जो-दड़ो में सबसे झधिक झ्स्थिपंजर इसी जाति के लोगों के प्राप्त हुए हैं । रमरणु रदे कि मोर्देन्नो-दड़ो तथा श्रल उवेद से प्रास खोपड़ियों में समानता है। ई० पू० ४००० में यद्द जाति सम्यता के उच्च शिखर पर पहुँच चुकी थी । मोहें-जो-दड़ो में मंगोलियाई जाति के किसी व्यक्ति की एक खोपड़ी भी मिली है। इसके श्रतिरिक्त कुछ सणमूर्तियों के दाव-भाव मी मंगोलियन से लगते हैं । ये मूर्तियाँ निम्नेतर तह पर निकली हैं । यदद समव है कि इस जाति के लोगों का सिंधु प्रदेश में प्रवेश ईरान के पठार से हुआ हो |* श्रालुप्त जाति के किसी पुरुष की एक खोपड़ी भी मोहें-जो-दड़ो में मिली है । ये लोग शायद पामीर के पठार से श्राये थे । इन खोपडियों के संबंध में मानव-विंज्ञान के विशेषज्ञ श्री बी० यस० गुदद लिखते हैं कि प्रस्तर ताम्र युग में सिंधु नदी की घाटी में छोटे कद, लवे सिर; पतली तथा ऊँची नाक श्र लंबे हरे के व्यक्ति रहते थे, किंतु ये बलवान्‌ नहदीं थे । इसके ्रतिरिक्त लवे 'वेदरेवाली एक श्रीर जाति थी | इस जाति के लोग कद में विशेष लंवे थे | तीसरी जाति के लोगों के सिर चीड़े तथा नाक पैनी होती थी । इनके सिर का पृष्ठ भाग कभी योल तथा कमी चिफटा रहता था । ये तीनों जातियाँ श्रल उवेद तथा किश में रहती थीं । इससे जान पढ़ता है कि प्रस्तर ताम्र युग में मेसोपोटे- मिया (विशेषकर प्रीठारगोनिद युग) तथा सिंघु प्रदेश की जातियों में जातिगत संबंध था | * सिंधु सम्यता के श्रवसान पर बाहर से कुछ श्रन्य जातियाँ सिंघु प्रांत तथा हृडप्या में पहुँची थीं | इनकी सम्पता नागरिक नहीं थी । तीन स्थानों के खदहरों के ऊपर इन लोगों ने श्रपने निवास यान स्थापित किये । मोर्दे-जो-दडो के खडहरों के ऊपर कोई मकान फिर नददीं बने । परंठ उजाड़ चन्दूदड़ो तथा इड़प्पा में बाद सें कुछ लोग बाहर से श्राकर बस गये थे। ये लोग कौन थे, कैसे शरीर किस युग में यहाँ पहुँचे यद॒ बतलाना कठिन है। श्रनुमान किया जाता है कि ये लोग ईरान- तुर्किस्तान की आर से ई० पू० १५.०० के समीप पहुँचे । खुदाई से शात हुश्रा है कि सिंधु सम्यता का शतिम युग शांतिमय नहीं था । इघर-उधघर फर्शी' तथा सीढियों पर कई शरस्यिपैजर मिले हैं जिससे शत होता है कि ये लोग घावे में इत हुए थे। फ़र्शों' के नीचे मी गहने मिले हैं, जिन्हें लोगों ने सुरक्षित रखने के लिए. गाड दिया था | दंड्प्पा की क़ब्नों से मी पुष्टि हुई है कि वे बाहर से श्राये हुए लोगों की क्रत्ने थीं । इस नगर की किलेवंदी भी वाद में की गई थी । उधर बलूचिस्तान में भी कई नगरों के जलाए, जाने के उदादरण मिले हैं । इन सब प्रमाणों से प्रत्यक्ष है कि सिंघु सम्यत्ता के श्रस्त-काल में बाहरी देशों से क्र तथा बवर जातियों ने प्रवेश किया शरीर इसके बचे-खुचे चिहीं तथा संस्कृति की शंबलाओं को छिन्न-मिन्न कर डाला ) सिंघु प्रदेश में बाहर से आने के रास्ते जल तथा थल दोनों मार्गों से थे । मोे-जो-दुढ़ो दृड़प्या तथा चन्हूदड़ो की सम्यता मिश्रित तत्वों के समन्वय से चनी होगी । पश्चिमी एश्या के साथ इन नगरों का संबघ स्थापित हो चुका था । इनकी जन-संख्या भारत के वत्त॑मान प्रधान नगर कलकत्ता, चम्बई तथा दिल्‍ली ही की तरद विश्वजनीन रही होगी । जीवन के सुलम सघन, व्यापार की सुविधाएँ, तथा शॉतिमय वातावरण के कारण सिंघु-सम्यता की निरंतर उन्नति होती गई | ससार १ सुकर्जी, हिं० सि०, प्र० ३६. मेके; य० इं० सिं०; प० १४४... 3 ऐ० झा फी० सा० इं०, ए५ १२७ रे




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