बर्मा | Barma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तीन प्रतापी राजामों का नाम स्मरण रखना चाहिए---थाबिन- श्वेती बेनांग और अ्लडज्पाया । इन तीनों में भी थाबिनश्वेती का नाम तो ऐसा है जिसे सुनते ही प्रत्येक बर्मी की छात्ती स्वा- सिसान से उन्नत हो जाती है । वह सूर्य की तरह तेजस्वी था पर दुर्भाग्य से वह मध्य श्राकाश तक पहुँचने से पूर्व अस्त हो गया । उसने अपने राज्य के विस्तार में पुर्वेंगालियों व उनके आधुनिक श्रसत्रों की पूरी मदद ली । पर उससे सबसे बड़ी भूल यह हुई कि वह स्पाम से युद्ध छेड़ बैठा । उस युद्ध में न केवल उसे असफलता मिली बल्कि उसकी शक्ति भी बुरी तरह क्षीण हुई । थाबिनश्वेत्ती का नाम वर्मा के इतिहास में इस बात के लिए अमर रहेगा कि उसने एक विस्तृत अर संगठित बर्मा की पहले-पहल कल्पना की श्रौर उसे मू्त रूप देने के लिए ठोस कदम उठायें । द्वितीय काल (१८२४ से १६४७) प्लासी के युद्ध (१७५७) के बाद झंग्रेज़ों के पैर भारत में प्रधिकाधिक जमते चले गये आर मरहठों का प्रताप-सुर्ये अस्त होता गया । प्लासी के युद्ध के कुल साठ वर्ष के भीतर मंग्रेज भारत के पूरी तरह मालिक बन बैठे भर उनकी शक्ति इतनी इद् हो गयी कि उन्हें भारत से बाहर पाँव फैलाने की सुभी | उधर बर्मा भी उन दिनों राजा श्रलज्पाया के प्रयत्नों के फलस्वरूप झ्रपने पूर्ण यौवन श्रौर शक्ति में था । इसका स्वाभाविक परिमाण यही हुमा कि दो महत्त्वाकांक्षी पड़ौसियों में ठन गयी। इस संघर्ष का श्रत्तिम परिणाम यह हुप्ना कि बर्मा ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग बनाकर भारत में मिला दिया गया | ज़ १७ प्र




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