मनुष्य का भाग्य | Manushya Ka Bhagya

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Manushya Ka Bhagya by योगेन्द्रनाथ मिश्र - Yogendra Nath Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पड़ती ही है क्योकि हम उस अनुभूति को ही वास्तविकता की (झनुझूति मान बैठते हैं। वास्तव में यह तो मानसिक माव है जिसे मस्तिष्क शर्म द्वारा दी गयी जानकारी के आधार पर निर्मित करता है। इसीलिए. तो ऊपर कहा कि हमारे मस्तिष्क में उत्पन्न विश्वजगत्‌ का चित्र--प्रतिवि--हमारी जानेंद्रियों तथा मस्तिष्क पर निर्भर करता है। सभ्षेप से यहद प्रतिबिम्न अथवा अनुभूति सापेक्ष है पूण अथवा परम नहीं । अतः जब दम बाह्य जगत्‌ का वर्णन करें तब इस बात का ध्यान रखे । ऊपर हमने विचारों की तार्किक प्रक्रिया की वचचीं की। इस प्रक्रिया को यथवा गणित-सम्बन्धी तर्क को हम यों दी आदर्श अथवा सत्य? मान लेते हैं। एसा सदैव नहीं होता। हमें दो बातों से सावधान रहना होगा। प्रथम तो यह कि मानव-विचारों की प्रक्रिया प्रायः दश्यगत निरीक्षण (56508 00567-- भ्8100) पर और दूसरे सामान्य बुद्धि (००एएण०००४८0४९) पर भाधारिति रहती है। इस सामान्य बुद्धि पर विश्वास नहीं किया जा सकता | इसी के कारण ही तो हम प्रथ्वी को समतल समभ लेते हैं और दो लंब रेखाओं को समानान्तर मान लेते हैं। यद्यपि दोनों रेखाएँ प्रथ्वी के केन्द्र की ओर प्रदत्त होने के कारण कोण चनाती हैं और इसी सामान्य बुद्धि के बल पर हम सरल रेखागमन (6 फ्रा09ण0ा शा काटा शत मान लेते हैं जो विल्कुल गलत है। हमे पृथ्वी की अपनी घुरी पर गति को भी लेना ्वाहिए । सूर्य के चारों ओर ऐथ्वी की गति पर ही नहीं बल्कि सम्पूण सौरमंडल की हरक्यूलस नक्त्र-समूहू की ओर इसकी गति पर भी ध्यान देना वाहिए। इन सबके परिणामस्वरूप चर्दूक की गोली अथवा वायुयान जो ऐएथ्वी की अपेक्षा सीधी रेखा से गति करता-सा प्रतीत होता है वास्तव में किसी समीपवर्ती नक्षत्र की अपेक्षा सर्पिल रूप में तिरछी गति ही करता है। सामान्य बुद्धि हमें बताती है कि रेजर व्लेड की धार बिल्कुल सीधी है पर सूकष्मद्शीक द्वारा परीक्षा करने पर बह बच्चे द्वारा सीची गयी टेढ़ी-मेढ़ी रेखा लगती है । इस्पात का टुकड़ा सामान्य बुद्धि में ठोस लगता है पर एक्सरे परीक्षा मे बदद छिद्रमय दिखाई देता है। पदाथ (ण8(60 की आधुनिकतम मान्यता के अनुसार तो पदार्थ स्वयं सूक्षमतम कणो से बना है जो एक दुसरे से अलग रहते हुये भी तीव्र गति से घूम रहे हैं) इसलिए. यदि किसी चीज का प्रारमम उसकी मान्यताएँ और तकें गलत हों तो निश्चय ही उसके सम्बन्ध से निर्णय सी तार्किक रूप में गलत होंगे। मिश्र के दाशेनिक इन गलत तकों को मिथ्यावाद अथवा कुतकं कहा करते थे । श्श्र




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