विवेकानन्द साहित्य खंड 8 | Vivekanand Sahitya Khand 8
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
170.14 MB
कुल पष्ठ :
427
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)११ व्यावहारिक जीवन में बेदान्त (१)
कारणवद हमारे समान उन्नति नहीं कर पाये, उनके प्रति घृणा करने का अधिकार
हमें नहीं है। किसीकी नित्दा मत करो। किसीकी सहायता कर सकते हो तो
करो, नहीं कर सकते हो तो हाथ पर हाथ रखकर चुपचाप बैठे रहो, उन्हें आशीर्वाद
दो, अपने रास्ते जाने दो । गाली देने अथवा निन्दा करने से कोई उन्नति नहीं होती ।
इस प्रकार से कभी कोई कार्य नहीं होता। दूसरे की निन्दा करने में हम अपनी
शक्ति लगाते हैं। आलोचना और निन््दा अपनी शक्ति खर्चे करने का निस्सार
उपाय है, क्योंकि अन्त में हम देखते हैं कि सभी लोग एक ही वस्तु देख रहे हैं, कम-
बेदा उसी आदर्श की ओर पहुंच रहे हैं और हम लोगों में जो अंतर हैं, वे केवल
अभिव्यक्ति के हैं ।
पाप की बात लो। मैं अभी वेदान्त के अनुसार पाप की घारणा तथा इस
घारणा की कि मनुष्य पापी है, चर्चा कर रहा था। दोनों वास्तव में एक ही हैं
केवल एक सकारात्मक है, दूसरी नकारात्मक है। एक, मनुष्य को उसकी दुबे-,
लता दिखा देती है और दूसरी, उसकी शक्ति । वेदांत कहता है कि यदि दुबेलता
है, तो कोई चिता नहीं, हमें तो विकास करना है। जब मनुष्य पहले-पहल जनमा,
तभी उसका रोग क्या है, जान लिया गया। सभी अपना अपना रोग जानते हैं--
किसी दूसरे को बतलाने की आवश्यकता नहीं होती। सारे समय--हम रोगी
हैँ--यह सोचते रहने से हम स्वस्थ नहीं हो सकते, उसके लिए औषध आवद्यक
है। बाहर की हम सारी चीजें भूल जा सकते हैं, बाह्य जगत् के प्रति हम कपटाचारी
हो सकते हैं, कितु अपने मन के अंतराल में हम सब अपनी दुर्बलताओं को जानते
हैं। वेदांत कहता है कि फिर भी मनुष्य को सदेव उसकी दुर्बलता की याद कराते
रहना अधिक सहायता नहीं करता, उसको बल प्रदान करो, और बल,सदेव नि्बे-
लता का चिंतन करते रहने से नहीं प्राप्त होता। दुर्बलता का उपचार स्व
उसका चिंतन करते रहना नहीं है, वरन् बल का चितन करना है। मनुष्य में
जो बक्ति पहले से हीं विद्यमान है, उसे उसकी याद दिला दो। मनुप्य को पापी
न बतलाकर वेदान्त ठीक उसका विपरीत मार्ग ग्रहण करता है और कहता है
तुम पूर्ण और शुद्धसवरूप हो और जिसे तुम पाप कहते हो, वह तुममें नहीं है।
जिसे तुम 'पाप' कहते थे, वह तुम्हारी आत्माभिव्यक्ति का निम्नतम रूप है; अपनी
आत्मा को उच्चतर भाव में प्रकाशित करो। यह एक बात हम सबको सेव
याद रखनी चाहिए और इसे हम सब कर सकते हैं। कभी 'नहीं मत कहना,
'सैं नहीं कर सकता” यह कभी न कहना, क्योंकि तुम अनन्तस्वरूप हो। तुम्हारे
स्वरूप की तुलना में देश-काल भी कुछ नहीं हैं। तुम सब कुछ कर सकते हो,
तुम स्वेशक्तिमान हो।
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