इन्सान का दिल | Insan Ka Dil

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Insan Ka Dil by शैलेन्द्र कुमार पाठक - Shailendra Kumar Pathak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इन्सान का दिल श्दे हो सकता कि वह श्रपने ही पद-चिन्हों. को सिमेट कर एक रस्सी बना कर उन्हें झपने कंधे पर डाल कर जंगल के किसी कोने में छिप गयाहो ? क थ ी हमारे नेत्र एक बार फिर मिले । उनमें झ्राइचयं निराशा श्रौर थकान के भाव थे । हम सचमुच ही घोखा खा गये । हमने उसे काफी खोजा बहुत खोजा लेकिन सब व्यर्थ रहा । हमें उसके पर के निशान किसी श्रोर भी तो नहीं दीखे । सहसा सूसन हूँस पड़ी बोछी--मेरा खयाल है वह खरगोदा अपने पैरों वापस लौट गया है--श्रपनी खोह में उसकी इस बात के बाद हमने श्रपनी खोज बंद कर दी शभ्रौर तब हमने देखा--प्रपनें को देख ने की इजाजत दी । कि यही थी बात जो कि उस जंतु ने श्रपनाई थी । बह अपने ही पैरों के निश्षानों पर करीब दस गज तक बड़ी होशियारी से वापस लौटा था । देखो हमने एक-दूसरे को बताया । यह स्थान था जहां. से वह श्रपने पद-चिन्हों को छोड़कर झाड़ियों की तरफ कूद गया था । काफी लम्बी कूद थी । कितनी लम्बी ? छे गज -या सात ? उसने सोचा होगा लायद कि भ्रपने पैरों के निशानों में ऐसी खलबली मचा कर वह पीछा करने वालीं को धोखा देने में कामयाव हो गया। इसलिए बहू वह्ठं से कुदान लगा गया श्ौर भ्रब कहीं बरफ ढकी झाड़ियों में ऊंघ रहा होगा । कया पता जहाँ हम खड़े हैं उसी के घिलकुल पास ही कहीं ग्राराम कर रहा हो ? यह स्वंमान्य तरीका है सब खरगोश यों हो कूदते हैं । क्या सिर्फ इतनी श्रुद्धिमानी ही उनके मुख पुरखे उन्हें सिखा सके हैं ? बेचारे को श्राराम की साँस लेन दे । मैंने सुसन से कहा । उसने बच्चों जैसी किलकारी भरी श्रौर एक बरफ की गेंद पड़ोस के भुरमुट में लुड़का दी | श्रंघा संसीठा बंदूक चलाने से कोई लाभ नहीं ।




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