वेद और साम्यवाद | Ved Aur Samyavad

Ved Aur Samyavad by सदानन्द - Sadanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समान और राष्ट्र का' शत्चु श क्रान्ति के विरोधी--दांसता.की दुचलताएँ, वासना की ज्वालएँ मानच-समाज में स्वाथं को * भावनाओं का सूत्रपात करती है । स्वार्थ की. लददर ने हृदय को श्मिभूत - किया. शीर सनुष्य के थन्द्र श्रहमन्प्रता के भाव का उदय हुझा | ' मैं हूँ, की कुत्सित भावना ने अपनी इच्छापूर्ति-कें लिये दूसरों का हक़ दहृड़प करना शुरू किया । अपने चाणक सुख के लिये दूसरों का जीवन बरवाद करने में थ्पने को चतुर समकने लगा । मदान्धता के वशीभूत हो झ्ात्मिक पुकार को भूल गया । चस ! यही व्यक्तिवाद का विकृत रूप है। इस वैथक्तिक दचि से बइ कर समाज श्योर राष्ट्रका कोई दूसरा शत्रु नहीं | मनुष्य इस झ्यमन्यत्ता का चश्मा चढ़ा कर देश, जाति श्ीर ससार को सूल जाता है, साथ ही अपनी चात्तचिक स्थित्ति को मी । इस भुलभुलइयाँ में उसे यदि कोई चीजू रमरण रदती है तो केवल--'““मैं हूँ ! कुछ नज़र श्रात्ता दै, तो समाज श्लीर राष्ट्र से कारे-कोसों दूर श्वपनी स्वतन्त्र सत्ता ! चह समकता है इमारी झाज की झवत्था दी नास्तविक श्ववस्था है । चासना श्रौर स्वाथ परता श्रपनी विक्ृत शीर 'श्रधाकतिक अवस्था का चोध दी नहीं द्ोने देती । न उते क्रान्ति शरीर नवनिर्माण का झसली रददस्य दी समम झाता है । साथ ही क्रान्ति से जिन लोगों के स्वाथ' को धक्का लगता दे वे मी उनके साथ मिलकर उस व्यक्तिवादी शक्ति को सब प्रकार न सुद्दढ़ बनाते हैं। सच तो यद्द दै कि क्रान्ति का विरोध प्रायः रूढ़ी अस्त-श्न्वपरम्परा- नुगामी श्ौर स्वाथ भिय लोगों द्वारा ही सदा से दोता रद्दा है । सुकरात ने भी इसका बहुत दो रपट उल्लेख किया दैः-- “प्राचीन परम्पराशओों तथा चुस्सित रूड़ियों में फंसा हुया समाज निरतर पतन तथा श्रवनति की श्रोर जाता दै । ऐसे समाज के धनीमानी जन उन रूढ़ियों के पालन में बड़ी करता, तत्परता तथा श्रद्धा दिखाते हैं । उन्हें नवीन उन्नतिशीक्ष विचारों से बड़ी घृणा होती है । चाहे जो दो वे नये विचारों का विरोध ५-७




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