माटी हो गयी सोना | Mati Ho Gayi Sona

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Mati Ho Gayi Sona by कन्हैयालाल मिश्र -Kanhaiyalal Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रूसके दसन-दावानलकी उन लपरटोंसें- सन्‌ १९०५ उन दिनों अपने उत्तराधिकारीकों अपना चार्ज देनेकी तैयारी कर रहा था । रूसकी जनता वहाँके कुशासनसे तंग थी । निर- उुश दमनने खुले आन्दोलनका दार सदाके लिए वन्द कर दिया था जनतामें भोतर-ही-भीतर असन्तोपकी ज्वाला सुलग रही थी । समय पाकर वह कुछ विखरेसे रूपमें रूसके तम्वोफ़॒ सूवेंमें भड़क उठी । जगह- जगह विद्रोहकी घोषणा कर दी गई । जारका साम्राज्य हिल उठा । इस प्रदेशके शासक लुजेनोवस्कीने शासनकी दर्पमयी निद्ाले चोककर यह देखा मदने उसे उकसाया और अभिमानने उसे प्रेरणा दो । दमनकी आँधी गौर भी प्रवल वेगसे घाँ-र्वां कर उठी 1 मोह अत्याचारके साकार स्तुपसे वे क्ज़ाक सिपाही जिसे देखते पकड़ लातें छर्सेसे उसे भून डालते संगीनोंपर उछालते बोर चौराहोंपर फेंक देतें । जिसे चाहते लूट लेते जिसका चाहते घर फूंक देते और जव चाहते सुन्दर युवत्तियोंको पकड़ लाते भर खुलेआम उनका सर्वस्व लूटते लुजेनोवस्की यह सब सुनता इसको तारीफ़ करता नौर खुद होता । चारों ओर निर्लज्जता पैशाचिकता और अराजताकी त्तामसी तमित्रा छायी हुई थी । प्राणोंकां सोदा करनेवाले पागल युवकोंकी गुप्तसमिति इस स्थित्तिपर विचार करने बैठी । लुजेनोवस्कों उनकी लॉाँखोंका काँटा था । दलपतिने गस्मीर स्वरमें कहा- उस डौतानकों थाफे हस्तीसे मिटा देना ही उसके इन कारनामोंका सच्चा पुरस्कार हूँ । ठोक है पर घिजलोके नंगे तास्से जूसनेका यह नाटक कौन खेले ? दलमें एक सन्नाटा छा. गया । सनी लोग सिर झुकाये जीवन और मरणकी उस झ्ांकोका चिन्तन-सा करने रु




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