श्री रसिक चन्द्रिका | Shri Rasik Chandrika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.05 MB
कुल पष्ठ :
548
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(ई )
बढ़ाने तथा मेरा ज्ञान बढ़ाने के र्देश्यसे मुझे प्रेमोपद्दार स्वरूप दी
हुई हैं। परन्तु इनमें उचित रूप से ध्वगादइन न कर सकने के कारण
उनमें मेरा झान एक कम्पोलिटर से विशेष नहीं है। परन्तु
एनमें मेरा प्रेम ध्यवश्य है, क्योंकि एक तो चे प्रेमोपद्दार हैं, दूसरे
सनमें श्री भगवान की मदिमा है। यदि उनकी दया दृप्टि हो
जावेगी तो कोई साधु शुरु रूप में सुफे समका देंगे । जैसे दक्षिण
पर्यटन करते समय श्री मद्दाप्रभु ने एक गीता-पाठी से एढ्ा था,
“भाई, तुमे सीता पाठ करते झाश्पुलकादि क्यों हो रहे हैं? तुम इसे
कितना समफते दो १” उसने नम्रता से कहा, “प्रभो, में तो कुछ
भी नहीं समझता हूँ; किन्तु इतना ही जानता, हूँ कि ये इलोक
आमगवान् के मुख-कमत से लिकले हुए हैं !”
भाई गोविन्द, श्रीमगवान् की तुम्दारे ऊपर छृपा-दृष्टि है,
उसने तुमको निंमल-बुद्धि, मेघा, 'भरृति, तितिक्षा इत्यादि सदूरुण दे
रक्त हैं सद्दी, परन्तु इनसे भी झाधिक तुममें प्रेम की मात्रा
है । पुस्तक वो तुमने भाति-भांति की सदस्रों पढ़ रक्खी हैं, श्लौर
पढ़ते दी रहते दो झ्औौर पढ़ोगे, परन्तु तुम्दारे प्रेमष्लाबित रदभाव को
देख कर सुकसे इस छोटी-सी पुस्तिका के झनुबाद को,
जो एक प्रेममय बद्भुत मन है, बिना तुम्हें प्रमोपहार दिये भह्दीं
रददा जाता दै--झतः श्याशीर्वाद सदित उत्समे दै।
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